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बिरसा मुंडा – सम्पूर्ण जीवन परिचय

by bnnbharat.com
November 15, 2022
in छोटी कहानियाँ, जीवनी, झारखंड, झारखंड – सम्पूर्ण परिचय, झारखंड का इतिहास
बिरसा मुंडा – सम्पूर्ण जीवन परिचय
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बिरसा का जन्म अड़की प्रखंड अंतर्गत ग्राम — उलीहातु में 15 नवंबर 1875 को हुआ था। इसके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी था। बिरसा के पूर्वज चुटू मुंडा और नागू मुंडा थे। वे पूर्ती गोत्र के थे। वे रांची के उपनगर चुटिया में रहा करते थे। कहा जाता है कि इन दो भाईयों के नामसे इस क्षेत्र का नाम छोटानागपुर पड़ा। चुटिया में अनके वर्षों तक इनका समय बीता। काल — क्रमानुसार इनकी जनसंख्या में वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप इन उपवंश के मुंडा अपने रहने के लिए क्षेत्र की खोज में निकला पड़े। वे खूँटी में मरंगहदा के पास तिलमा पहुंचे और वहां बस गये। वहां से फिर मांझिया मुंडा के नेतृत्व में आगे बढ़े और तमाड़ में मांझीडीह गाँव की स्थापना की। मांझीडीह से वे रंका और लाका मुंडा के नेतृत्व में अडकी प्रखंड के मुख्यालय से 10 किलोमीटर पश्चिम दुर्गम एवं पहाड़ी मार्ग पार पहाड़ की छोटी पर उलीहातु गाँव बसाया। बाद में उलीहातु विकसित होकर एक बड़ा गांव के रूप में परिणत हो गया। इसी गांव में लकारी मुंडा का जन्म हुआ था जो बिरसा का दादा थे। बिरसा के पिता सुगना मुंडा का जन्म भी यहीं हुआ था और बिरसा पैदाइश एवं पैतृक गाँव भी उलीहातु ही था। बिरसा दादा लकारी मुंडा मूल रूप से उलीहातु ही था। उनका विवाह चलकद में हुआ था और उसके तीन पुत्र हुए। उनमें बिरसा के पिता सुगना मुंडा का दूसरा स्थान था। सुगना का विवाह अयुबहातु में डिबर मुंडा की सबसे बड़ी पुत्री करमी से हुआ। उनके तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ थी। इनमें से बिरसा का चौथा स्थान था।

बिरसा मुंडा

आर्थिक एवं सामाजिक जीवन

ग्राम — उलीहातू में बिरसा वंशजों की आर्थिक स्थिति काफी बिगड़ी हुई थी। परिस्थिति से विविश होकर खेत में काम करने वाले मजदूरों या बंटाईदार अथवा रैयतों के रूप में काम की तलाश में बिरसा के पिता, माँ और चाचा पसना मुंडा उलीहातू छोड़कर बीरबांकी के निकट कूडुम्बदा चले गये। वहां से परिवार चम्बा चली गयी और फिर चलकद आये। चलकद में आकर वे गाँव के मुंडा बिर्सिन्ह्के यहाँ शरण लिए। बिरसा के जन्म के बहुत दिन पहले ही उसके बड़े पिता कानू उलिह्तू में ईसाई बन चुके थे। इनका मसीही नाम पौलूस था। बिरसा के पिता सुगना और उसके छोटे भाई फसना ने बम्बा में जाकर ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। यहाँ तक की सुगना तो जर्मन ईसाई मिशन के प्रचारक भी बन गए थे। इसलिए बिरसा भी अपने पिता के साथ ईसाई हो गये। सुगना का मसीही नाम मसीहदस और बिरसा का दाऊद मुंडा पड़ा। बिरसा को दाउद बिरसा भी कहा जाता था। इस तरह से बिरसा का परिवार उलगुलान होने तक चलकद में ही रहा और बिरसा का बचपन भी अपने माता — पिता के साथ काफी दिनों तक चलकद में ही व्यतीत हुआ।

गरीबी के कारण कुछ बड़े होने पर बिरसा को अपने मामा घर अयुबहातु ले जाया गया। बिरसा के बड़े भाई कोंता मुंडा 10 वर्ष के उम्र में कूंदी चला गया। वहां एक मुंडा के यहाँ नौकरी करने लगा और काफी अर्से तक वहीँ रह गया था। बाद में उनकी शादी उसी गाँव की एक मुंडा लड़की से हुई। बिरसा अयुबहातु में दो वर्ष तक रहा। वहीं रहते जयपाल नाग द्वारा संचालित सलगा स्कूल में दाखिला होकर आरंभिक शिक्षा प्राप्त की। कुछ दिनों बाद उनकी सबसे छोटी मौसी जौनी की शादी खटंगा में हो गई। चूंकि बिरसा अपनी मौसी का बड़ा प्यारा था। इसलिए शादी के बाद उसे अपने साथ खटंगा लेती गई। यहाँ से ईसाई प्रचारक से उनका संपर्क हुआ। वह प्रचारक मुंडाओं की पुरानी धर्म व्यवस्था की आलोचना किया करता था। यह बिरसा को बिलकूल अच्छा नहीं लगा। वह इस चिंता में भाव — मग्न होकर अध्ययन में इतना तल्लीन रहता था कि उसे भेड़ — बकरियों को चराने के लिए सौंपे गये कार्यों को भी मन लगाकर नहीं निभा पाता था। इस कारण से उसे कभी — कभी अपनी मौसी तथा अन्य लोगों से डांट भी मिल जाया करता था। फलत: उसने वह वहां कुछ समय तक रहा। वहां से वह बुडजो स्थित जर्मन मिशन स्कूल में भर्ती हो गया और वहीँ से निम्न प्राथमिक की शिक्षा उसे प्राप्त करने के लिए जर्मन ईसाई मिशन स्कूल चाईबासा में 1886 ई. में अपना दाखिला ले लिया।

चाईबासा में बिरसा चार वर्षों (1886 से 1890) तक रहा। इस बीच उनके साथ एक रोचक घटना घटी। एक बूढ़ी महिला ने उसके माथे की रेखाओं का निरिक्षण करने के बाद यह भविष्यवाणी की थी कि वह एक दिन बहुत बड़ा काम कर दिखाएगा और एक महान व्यक्ति बनेगा। इस अवधि में जर्मन — लूथेरन और रोमन कैथोलिक ईसाईयों के भूमि आन्दोलन चल रहे थे। एक दिन चाईबासा मिशन में उपदेश देते हुए डॉ. नोट्रेट ने ईश्वर के राज्य के सिद्धांत पर विस्तार से प्रकाश डाला। इस उपदेश के श्रोता के रूप में बिरसा भी उपस्थित था। डॉ. नोट्रोट का कहना था कि यदि वे ईसाई बने रहेंगे और और उनके अनुदेशों का अनुपालन करते रहेंगे तो उनकी छिनी हुई जमीन की वापसी कर दी जाएगी। इस बात से बिरसा को और अन्य लोगों को भी बड़ा धक्का लगा और 1886 — 87 में मिशनरियों से सरदारों का संबंध विच्छेद हो गया। उसके बाद मिशनरियों ने सरदारों को धोखेबाज कहना शुरू किया। बिरसा ने उसी समय डॉ. नोट्रोट और मिशनरियों को बहुत ही तीखे शब्दों में आलोचना की। इसका नतीजा यह हुआ कि बिरसा को स्कूल से निकाल दिया गया। इस घटना के बाद उसने अपनी आवाज बुलंद की साहब साहब एक टोपी है। अर्थात गोरे अंग्रेज और मिशनरी एक जैसे हैं । चाईबासा में रहकर बिरसा उच्च प्राथमिक स्तर की शिक्षा पाई और हिंदी और अंग्रेजी की थोड़ी बहुत जानकारी हुई। हिंदी बोल लेता किन्तु अंग्रेजी में बातचीत नहीं कर पाता था। बिरसा 1890 में चाईबासा छोड़ दिया और उसके तुरंत बाद उसने जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी। इसके साथ उनके और भी सहपाठी भी थे जिन्होंने इनका साथ दिया। उसने छोड़ दी। उसने जर्मन मिशन त्याग कर रोमन कैथोलिक मिशन धर्म स्वीकार किया। उसके साथ कुछ दिनों तक रहा, पर बाद में उस धर्म के प्रति भी उनके मन में विरक्ति आने लगी। ऐसी बार सरदारों के आन्दोलन के साथ भी हुई। उन लोगों ने जिन मांगों को लेकर रोमन कैथोलिक मिशन का समर्थन प्राप्त करना चाहा था। उस ओर से वे निराश होकर अपनी पुरानी धर्म की ओर लौट आये। इस तरह से वे मिशन धर्म का त्याग कर अपनी धर्म की आस्था पर विशेष बल देने लगे।

चाईबासा से लौटने के बाद बिरसा करीब एक वर्ष तक अपनी बड़ी बहन दसकीर के यहाँ कांडेर में समय बिताया। सन 1891 में वह बंदगाँव पांड से होता है। आनंद पांड कोई पण्डित नहीं था बल्कि बंदगाँव के गैर मुंडा आदिवासी जमींदार जगमोहन सिंह के मुंशी था। आनंद पांड स्वांसी जाति का एक धार्मिक व्यक्ति था। उससे मिलकर बिरसा ने वैष्णव धर्म के प्रारम्भिक सिद्धांतों और रामायण महाभारत की कथाओं का श्रवण कर ज्ञान हासिल किया। आनन्द पांड बिरसा का गुरू तुल्य था जिनके साथ वह तीन वर्षो तक रहा। उनके साथ रहकर वह गौड़बेड़ा, बमनी और पाटपुर आदि गांव का भ्रमण किया था। इस कर्म में बमनी में एक वैष्णव साधू से उनकी मुलाकात हुई। साधू उसे तीन महीने तक उपदेश देते रहा। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर बिरसा ने मांस खाना छोड़ दिया और जनेऊ धारण कर शुद्धता और धर्म परायणता का जीवन व्यतीत करने में विशेष जोर देने लगा। वह तुलसी की पूजा करने लगा और माथे पर चन्दन का टीका लगाना शुरू किया। उन्होंने गो — वध को भी रूकवाया। आनंद पांड के अधीन बिरसा की शिष्यत्व की अवधि 1893 — 94 में समाप्त हो गयी।

बिरसा का यह समय व्यक्तित्व निर्माण का था। 1894 तक में बिरसा बढ़ कर एक बलिष्ठ और सुन्दर युवक बन चुका था। ईसाई धर्म ने जो उसके चारों ओर एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभर रहा था, उनके बचपन को एक विशेष सांचे में ढाला और इसके कारण ही उसे अच्छी स्कूली शिक्षा मिल पाई। बाद में वह ईसाई और वैष्णव धर्म की मिश्रित प्रभाव में आकर धार्मिक आन्दोलन की ओर प्रेरित हुआ। सरदारों के भूमि संबंधी आन्दोलन के अदम्य प्रभाव ने बिरसा को मिशनरियों से भिड़ने तथा स्कूल छोड़ने के लिए बाध्य किया। बिरसा ने सरदार आन्दोलन का अनुसरण किया और आनंद पांड का साथ छोड़ा। बाद में वह वैन एवं भूमि संबंधी अधिकारों की मांगों को लेकर चल रहे सरदारी आन्दोलन में विशेष रूप से भाग लिया।

धार्मिक जीवन

अब बिरसा का जीवन एक सरदार की तरह व्यतीत हो रहा था। अंतर इतना था कि वह धार्मिक प्रभाव में रहता था। उनके जीवन में काई तरह की विलक्षण घटनाएँ घटती रही और आगे चलकर 1895 तक में वह एक पैगंबर बन गया। उसके बाद वह चोट लगे लोगों की बीमारियों को छूने मात्र से ठीक करने लगा। इस तरह से सास्विक धर्म का सूत्रपात्र हुआ। वह मुंडाओं के बीच प्रचलित बोंगा एवं पूजा प्रथा को नफरत करने लगा। बलि प्रथा का विरोध किया और एक नये धर्म का सृजन किया जिसे बिरसाइत धर्म कहा जाता है। इतना होने के बावजूद भी बिरसा एक अधर्मी — सा काम करने लगा था। कहा जाता है कि गरीबी हालत में बिरसा मुर्दे के साथ गाड़े गये गहने एवं पैसे चुराया था और उसे बाजार में बेच कर अनाज की व्यवस्था की थी। इस मामले में वह चोर पकड़ा गया और उसे धर्म बहिष्कार भी कर दिया गया। उसे बालू बिरसा अर्थात पागल बिरसा कहा जाने लगा। किन्तु जल्दी ही उनकी पुरानी प्रतिष्ठा वापस आयी और उसकी धार्मिक अनुभूतियाँ परिपक्व हो गयी। सन 1895 में बरसात के समय एक दिन उसे बिजली की कड़क के साथ सर्वोच्च प्रभू के दर्शन हुई। उसे भगवान का संदेश मिला। इस संदेश का संबंध उसकी अपनी जनता की मुक्ति से था। यह बात सुनकर बिरसा के दर्शन के लिए लोगों के भीड़ चलकद की ओर उमड़ पड़ी। उनहोंने बिरसा को जनेऊ और काठ की खड़ाऊ पहने देखा। उनसे बातें की और उनकी चमत्कारिक कामों को देखकर लोगों की यह एहसास हुआ कि बिरसा को दुनिया लोगों को यह हुआ कि बिरसा को दुनिया की सभी शक्तियां प्राप्त हो गयी। लोग उनके प्रवचन सुनते थे और साथ मिलकर ईश्वर की प्रार्थना करते थे। बिरसा चेचक और महामारी के समय बीमारों एवं प पीड़ितों की सेवा करने लगा था। बिरसा की प्रार्थना में जिनको विश्वास था वे अच्छे हो जाते थे।

राजनीतिक आन्दोलन में योगदान

अब तक बिरसा का आन्दोलन केवल सुधारवादी सिद्धांतों के आधार पर चल रहा था। किन्तु उनके आन्दोलन में भीतर ही भीतर ईसाई मिशनरियों के विरूद्ध विरोध का स्वर था। क्योंकि बिरसा की ईसाई धर्म विरोधी रूख पर मिशनरी के अधिकारी क्षुब्ध थे। बिरसा आन्दोलन धीरे — धीरे स्वतंत्र जन आन्दोलन के रूप में भी विकसित हो रहा था। इसमें सरदारों का शामिल होना महत्वपूर्ण था। उन्हीं के प्रभाव के कारण आन्दोलनकारी सरदार के रूप में उभरने की बिरसा की दमित आंकाक्षा उभर कर सामने आने वाली।

1895 में निर्दोष और धार्मिक रंग लिए हुए आन्दोलन की शुरूआत हुई। धीरे — धीरे वह एक भूमि संबंधी राजनीतिक आन्दोलन का स्वरुप ले लिया। इस परिवर्तन के पीछे सरदारों का बढ़ता प्रभाव काम कर रहा था। सरदार अन्दोलना के प्रभाव से बिरसा के उपदेश का स्वर भी बदल गया। वह अब मुंडाओं के अलावा और किसी को भी प्रोत्साहन देने को तैयार न था। अन्य बहरी लोगों के प्रति उसे नफरत हो गया था।अपनी एक सभा में उसने अपनी जाति के शोषकों के विरुद्ध आवाज उठाई। गुस्से से आग बबुला हो गया और अपने हाथ — पैर पटकने लगा। लोग यह दृश्य देखकर डर गये वास्तव में उसका गुस्सा जमींदारों पर था। लोग उन्हें बाबु कहते थे, उसे बाबु ना कहने के लिए आवाज बुलंद किया।

यद्यपि बिरसा पर सरदारों का प्रभाव था, किन्तु वह उनका प्रवक्ता न था। इतना सही है कि सरदार और बिरसा आन्दोलन दोनों को ही जड़ में भूमि संबंधी पृष्ठभूमि कायम थी। इस प्रश्न को लेकर वर्षों तक मुंडाओं के बीच घोर चिंता और असंतोष चल रहा था। शुरू में सरदारों ने अग्रेजों के प्रति और यहाँ तक कि छोटानागपुर के राजा के प्रति भी निष्ठा प्रकट की थी। वे लोग सिर्फ बिचौलया स्वार्थों को समाप्त करना चाहते थे। बाद में उनमें से कुछ यूरोपियों के प्रति खिलाफ हो गए और सितंबर 1892 में अपनी जनता के समस्याओं के समाधान के लिए हिंसा पर उतारू हो गए। पर उनके सामने कोई स्पष्ट और ठोस राजनीतिक कार्यक्रम न था। ऐसा कार्यक्रम 1895 में बिरसा ने पेश किया पर वह भी कुछ अस्पष्ट — सा था। बिरसा का उद्देश्य अपने को मुंडा राज्य का प्रधान बनना था। साथ ही वह धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता भी हासिल करना चाहता था। जब सरदारों ने देखा कि उनके आन्दोलन के सफल होने की संभावना नहीं थी तो उन्होंने बिरसा की योजना के अनुसार काम करने लगे। फल यह हुआ कि उनके बेढंगे से विचार भी बिरसा आन्दोलन को प्रभावित करने लगे। बिरसा के अनुमोदन लेकर या उनके बिना ही सरदारों ने आन्दोलन की तैयारियां शुरू कर दी थी और हथियार इकट्ठे किए जा रहे थे। यद्यपि 24 अगस्त 1895 को विद्रोह छिड़ जाने की संभावना न थी, पर शीघ्र ही छिड़ सकता था, यह तय सी बात थी।

बिरसा को गिरफ्तार करने के लिए सरकार का षड्यंत्र

आन्दोलन छिड़ने की आशंका से बिरसा को गिरफ्तार करने के लिए सरकार की षड्यंत्र चलने लगी। 22 अगस्त 1895 तक सरकार ने बिरसा को गिरफ्तार करने का निर्णय नहीं लिया था। कमिश्नर चाहते थे कि या तो एक संदिग्ध पागल अथवा शान्ति भंग करने की आशंका उत्पन्न करने वाली कारवाईयों में लगे व्यक्ति के रूप में पकड़ कर लाया जाय। जिला पदाधिकारियों की एक बैठक में बिरसा की गिरफ्तारी की योजना पर विचार हुआ। या योजना के अनुसार भारतीय दण्ड प्रकिया दंडिता धारा 353 और 505 के अधीन गिरफ्तारी का वारंट जारी किया गया। निर्देशानुसार पुलिस पार्टी चलकद की ओर रवाना हो गयी। चूँकि उस वक्त बिरसा चलकद में ही था। पार्टी तीसरे पहर तीन बजे बन्द्गांव से 14 मील की दुर्गम रास्ते तय कर चलकद पहुंची और बिना किसी झंझट के बिरसा को गिरफ्तार कर ले जाया गया। बंदी बिरसा रांची में 4 बजे शाम को लाया गया। उसे कमिश्नर के सामने पेश किया गया और शाम को करीब 7 बजे बिरसा को जेल ले जाया गया। उस पर मुकदमा चला। मुकदमा चलाने का स्थान रांची से बदल कर खूंटी ले जाया गया जो कि मुंडा क्षेत्र का केंद्र स्थान था। इस मुकदमे में बीस गवाहों की जाँच की गयी। अभियुक्त बिरसा ने अपने बचाव में कुछ न कहा और न गवाहों से जिरह की। बिरसा और अन्य अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 505 के अधीन 19 नवम्बर 1895 को दोषी ठहराया गया। उनलोगों को दंगा कराने के अपराध के लिए अतिरिक्त अल्पकालिक सजाएं दी गयी और मुख्य अपराध के लिए दो वर्षों के सश्रम कारावास की सजा दी गई। बिरसा को 50 रूपया जुर्माना भी की गई और जुर्माना न देने की स्थिति में छह महीने सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। अन्य लोगों में से हरेक को 20 — 20 रूपये का जुर्माना किया गया। उन्हें जुर्माना ने देने की स्थिति में तीन महीने की सश्रम कारवास की सजा सुनाई गई। उच्च न्यायालय में अपील करने पर दंडादेश में परिवर्तन किया गया और दो वर्ष छह महीने की सजा घटा कर दो वर्ष कर दी गई।

बिरसा के आन्दोलन के दमन और उस बारे में की गई सरकारी करवाई से परिणाम यह हुआ कि घटनाओं ने अत्यधिक सरलता और शीघ्रता के साथ विपरीत दिशा में पलटा खाया। नए लोगों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया और जो ईसाई धर्म छोड़कर बिरसा की ओर चले गये थे, वे पुन: ईसाई धर्म के छत्रछाया में आ गये। लोगों ने सरकार द्वारा प्रतिशोध के कदम के आशंका से बहुत ही ज्यादा भयभीत होकर पादरी के आड़ में शरण लेना श्रेयकर समझा।

बिरसा की जेल यात्रा

सजा सुनाये जाने के बाद बिरसा को रांची की जेल से हजारीबाग जेल भेज दिया गया। उसने वहां दो वर्ष की सजा भोगी। सजा खत्म होने के कुछ दिनों पूर्व उसे रांची जेल फिर भेज दिया गया ताकि उसके रिहाई के बाद उसके गतिविधि पर रांची की पुलिस निगाह रख सके। बिरसा को 30 नवंबर 1897 को जेल से रिहा किया गया। उसे पुलिस चलकद ले आई और चेतावनी दी गई कि वह अब पुरानी हरकतें नहीं करेगा। अगले महीने 7 तारीख को डिप्टी कमिश्नर ने चलकद में उससे मुलाकात की। बिरसा ने वादा किया कि अब वह किसी तरह का उपद्रव नहीं करेगा।

बिरसा के जेल से निकलने के के कुछ दिनों बाद उसके अनुयायी उससे मिले। उन्होंने उससे निवेदन किया कि एक संगठन फिर से खड़ा किया जाए। उनहोंने कहा कि अपने खोये अधिकारों को फिर से हासिल करने और दुश्मनों को मार भगाने के लिए संगठन बनाना नितांत आवश्यक था। अनुयायी एवं शिष्यगण दो टुकड़ियों में बांट दिए गये। एक टुकड़ी पर धार्मिक प्रचार का भार का प्रचार का भार था और दूसरी विद्रोही की तैयारियों में लग गयी थी। राजनीतिक संगठन कार्य में सरदारों का बोलबाला था। इस प्रकार से बिरसा के धार्मिक आन्दोलन के तैयारी के सिलसिले में आन्दोलन का स्वरुप ही बदल गया था। धार्मिक संगठन के इस स्वरुप से राजनैतिक आन्दोलन की तैयारी में आसानी हुई।

जैसी की विद्रोह की योजना बनाई गयी थी बड़ा दिन (क्रिसमस) के एक दिन पूर्व अर्थात 24 दिसम्बर 1899 को अगलगी और तीरों से प्रहार की। महामारी की वर्षा कर दी गयी। सिंहभूम जिले के चक्रधरपुर थाने और रांची जिले के खूँटी, कर्रा, तोरपा, तमाड़ और बसिया थानों के अंतर्गत विद्रोह के आग दहक उठी। खूँटी थाने का क्षेत्र इस आन्दोलन का केंद्र था। आन्दोलन के सिलसिले में मुरहू एंग्लिकन स्कूल भवन पर दो तीर चलाये गये। किन्तु तीर से किसी को चोट नहीं लगी। सरवदा ईसाई मिशन में रात 9 बजे के बाद गोदाम में आग लगा दी गई। कुछ गांव में घर जलाये गये। सिंहभूम के पोडाहाट क्षेत्र में तीरों के प्रहार के बजाय आग लगी की घटनाएँ ज्यादा हुई। कूट्रूगूटू में 28 जनवरी को जर्मन मिशन का गिरजाघर जला दिया गया। इस तरह की कई घटनाएँ जहाँ तहां घटने लगी। बिरसा अनुयायी जोर – शोर नारे लगाते थे हेन्दे राम्बड़ा रे केच्चे, केच्चे, पूंडी राम्बड़ा रे केच्चे — केच्चे। इसका मतलब यह हुआ कि काले ईसाइयों और गोर ईसाईयों का सर काट दो। परंतु कोई ईसाई न मारा गया। कुछ ईसाई विद्रोहियों के प्रहार से घायल आवश्य हुए थे।

इन सब घटनाओं को देखकर बिरसा की गिरफ्तारी की कोशिशें फिर से शुरू हुई। उधर रांची के डिप्टीकमिश्नर के आदमी बिरसा की खोज में पोड़ाहाट की जंगलों की खाक छान रहे थे और इधर खूँटी क्षेत्र में बिरसा के अनूयायियों ने आम बगावत की तैयारी शुरू कर दी थी। 9 जनवरी को 8 बजी सुबह साईलरकब पहाड़ी विद्रोही मुंडाओं की एक बड़ी बैठक होनी जा रही थी। यह जगह डोम्बरी से कुछ दूर और सैको से करीब तीन मील उत्तर है। बैठक के लिए 25 दिसम्बर 1899 से ही विद्रोही बड़ी संख्या में तीर धनुष और मशाल लेकर सईलरकब पहाड़ी पहुँचने लगे थे। वहां वे घमासान लड़ाई के लिए तैयारी किये हुए थे। यह खबर सुनते ही पुलिस कर्मी उन्हें गिरफ्तार करने के लिए उस पहाड़ी तक पहुँच गई।

स्ट्रीटफिल्ड ने विद्रोहियों को चेतवानी दी की यदि उन्होंने तुरंत आत्मसमर्पण न किया तो उनपर गोलियां चलाई जाएगी। पर विद्रोही इसी तरह अड़े रहे और बिना भयभीत हुए विरोध भाव के साथ उन्होंने चिल्ला कर जवाब दिया कि वे लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार थे। गोलीबारी शुरू हुई। इसका जवाब विद्रोहियों ने पत्थरों और तीरों से दिया। गोली के बौछार से अनगिनत लोग मारे गये जिसमें महिलाएं एवं बच्चे भी शामिल थे। खून नदियाँ बही, बहुत से बच्चे अनाथ हुए, औरतें विधवा हुई, परिवार उजड़ गया। किन्तु वे अपने मैदान में डटे रहे। गोली का जवाब तीरों से देते रहे। विद्रोहियों में से बहुत कोई गिरफ्तार हुए। अंतत: तीन जनवरी 1900 को बिरसा भी पकड़े गये। उसे रांची जेल भेज दिया गया। 9 जून 1900 की सुबह 9 बजे अचानक उसकी मृत्यु जेल में हुई। कहा जाता है कि उसकी मृत्यु हैजा की प्रकोप से हुई। किन्तु संभावनायें व्यक्त की जाती रही है कि उसे जहर दे कर मार दिया गया। इस तरह से छोटानागपुर की धरती के इस वीर सपूत का अंतकाल हो गया।

छोटानागपुर काश्त — कारी अधिनियम

बिरसा आन्दोलन के परिणामस्वरूप 1908 का छोटानागपुर काश्त — कारी अधिनियम बना। इस अधिनियम द्वारा एक शताब्दी से चली आ रही भूमि उपद्रवों की काली रात खत्म हो गई। इस प्रकार छोटानागपुर में बिरसा आन्दोलन ने जो तहलका मचा रखा था वह इस क्षेत्र के स्वतंत्रता पूर्व इतिहास की सारी अवधि तक गूंजती रही। छोटानागपुर के सभी आंदोलनों के सन्दर्भ में एक विशिष्ट के मुंडा राज्य और धर्म स्थापना की संभवना तथा परिवर्तन लाने के लिए उग्र साधनों की धारणा छीन मानी जाए किन्तु क्षेत्रीय और राष्ट्रिय स्तर पर सामाजिक परिवर्तन के प्रतिक के रूप में बिरसा और उसके आन्दोलन को मान्यता मिल चुकी है।

साभार: स्त्रोत, जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, झारखण्ड सरकार

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