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मनुष्य आखिर है क्या?

by bnnbharat.com
January 3, 2022
in भाषा और साहित्य, समाचार
मनुष्य आखिर है क्या?
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नई दिल्ली.मनुष्य का अन्तर्जगत इतने प्रचण्ड उत्पात-घात,प्रपंचों, उत्थान पतन, घृणा, वासना की धधकती ज्वालाओं और क्षण क्षण जन्म लेती इच्छाओं से घिरा हुआ है कि उसके सामने समुद्र की महाकाय सुनामी क्षुद्र…लघुतर है. सुनामी नष्ट कर लौट जाती है. मानव मन के पास लौट जाने वाली कोई लहर नहीं है. वह तो बार-बार उठने और उसकी संपूर्ण उपस्थिति को ध्वस्त, मलिन कर घुग्घू बना देने वाली शक्ति है, जिसे विरले ही पराजित कर पाते हैं.

मैंने कई लोगों को देखा है. और मैं उन्हें देखकर चकित होता रहता हूं. बढ़ती आयु अथवा दूसरी विवशताएं भी उन्हें रोक नहीं पातीं. वे महत्तर संकल्प, प्रपंचों, सूक्ष्म और वैभवशाली उपायों से अपनी अग्नि को शांत करते हैं. हर क्षण किसी साधारण मनुष्य को खोजते हैं. उन्हें शिकार बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और वह साधारण मनुष्य जब ऊब कर चुपचाप विदा लेता है तो वे भी येन-केन प्रकारेण किनारा कर लेते हैं. लेकिन….मौका मिलते ही उसी साधारण मनुष्य को फांस कर फिर से नया गठन करते हैं.

झूठ, मक्कारी, धूर्तता से भरे ये लोग हैरतअंगेज चालबाजियों से लाभ उठाने के अनगिन तरीके जानते हैं. किसी साधारण मनुष्य को ये वहां तक खींचते हैं, जहां तक खींचते हुए इन्हें जरा भी लाज नहीं आती. और अगर कोई चुपचाप इनकी मनमानियों, स्वार्थ से भरे आग्रहों का विद्रोह नहीं करता तो ये निरंतर खींचते चले जाते हैं. ये आत्मावलोकन नहीं करते. इनका मन अपराधबोध से नहीं भरता. इनकी आत्मा इन्हें कभी नहीं धिक्कारती. ये मानते हैं कि जीवन हर क्षण, हर परिस्थिति में एक भोग है. उसे भोगना चाहिए. जहां से जो संभव हो, प्राप्त कर लेना चाहिए.

मैंने अपने जीवन में ऐसे कई मनुष्यों को देखा लेकिन एक मनुष्य अन्य सब पर भारी है. वैसी निर्लज्जता अन्य चालबाजों में भी नहीं है. उसने मुझे लगभग हर भेंट पर यह आश्वस्त किया कि उसकी आत्मा में निविड़ अन्धकार के सिवा कुछ नहीं है. वह महाभयंकर व्याध है जो किसी का भी फायदा उठा सकता है, उसे अप्रतिम निष्ठुरता से त्याग कर प्रतिदिन उसे गाली दे सकता है. किसी भी लड़की स्त्री के साथ सो सकता है. चमत्कारिक शातिरी के साथ आपको फंसा सकता है. आपको उसे त्यागता हुआ देख दूर तक आपका पीछा कर सकता है. आपके संकेतों, स्पष्ट किन्तु मौन निर्देशों के बाद भी आपको पकड़ सकता है और कुटिल हंसी के साथ सबकुछ सामान्य होने दिखलाने के प्रयास कर सकता है.

विडम्बना यह है कि ऐसा मनुष्य भी एक विशिष्ट वर्ग में सम्मानित है. और उसने वहां बड़े जतन, अदृष्टपूर्व धूर्तता से अपने लिए स्थान बनाया है. मैं उसे बरसों से देख जान रहा हूं. इन बीत रहे बरसों बरस के साथ उसने यह सिद्ध किया है कि मनुष्य मूलतः एक ही बार जन्म लेता है. सुधार या परिमार्जन उत्थान वहीं संभव है, जहां कुछ मनुष्यता होती है. भयावह अंधकार से पुती आत्माएं कुछ शोध परिवर्तन नहीं करतीं. वे महांधकार में, कुटिलता की कंदराओं में उतरती चली जाती हैं. बस पतन.. पतन और पतन.


प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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