नीता शेखर,
मुझे रात में रेडियो पर गाने सुनना बहुत अच्छा लगता है. शायद रेडियो से अच्छा दोस्त कोई नहीं हो सकता. एक रात यूं ही गाने सुन रही थी कि यह गीत बहुत दिनों बाद सुना “जिंदगी की यही रीत है हार के बाद ही जीत है”?
इस गाने ने मेरी बचपन की सहेली आरती की याद दिला दी थी. हम दोनों में काफी गहरी दोस्त थी. हमेशा हम साथ साथ रहते. जब तक एक बार भी बात ना कर ले तो, ऐसा लगता था दिन ही नहीं कट रहे. कॉलोनी में भी लोग हमारी दोस्ती का मिसाल दिया करते थे. बात उस समय की है जब 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी. अचानक सारे शहरों में हिंदू और सिख के दंगे शुरू हो गए थे, उस समय हम सब दोस्त इंटर के पहले साल में थे. हमने ना कभी दंगा देखा था ना सुना था.
मेरी दोस्त आरती भी सिख थी. उस समय यह हुआ कॉलोनी में जितने भी सिख रहते थे. सब को एक घर में रख दिया गया था. उनसे कोई भी बाहरी लोग नहीं मिल सकते थे. वह भी बिना गेटपास के अंदर नहीं जा सकते थे.
अब मेरी दोस्त भी वहीं थी. आज 2 दिन हो गए थे हम मिले नहीं थे, मन बहुत बेचैन था ना जाने वो कैसी होगी. क्या कर रही होगी. फिर मुझे लगा मुझे अपने दोस्त से मिलने जाना चाहिए. मैंने चुपके से अपने दोस्त से मिलने का मन पक्का कर लिया और चुपचाप बिना बताए हुए घर से चल पड़ी. जब मैं वहां पहुंची तो देखा काफी भीड़ थी. चारों तरफ पुलिस ही पुलिस भरे हुए थे. मैं किसी तरह छुपते छुपाते अपने दोस्त के पास पहुंच गई. मेरी दोस्त मुझको देखते ही गले से लिपट गई और उसकी आंखों से आंसू बह चले. मैं भी कुछ बोल नहीं पा रही थी. थोड़ी देर बाद जब हम नॉर्मल हुए तो उसने बताया उसकी मम्मी को डर से हार्ट अटैक आ गया था. उन्हें लेकर जल्द से जल्द हॉस्पिटल पहुंचाया गया जहां वह आईसीयू में भर्ती थी. उस वक्त मोबाइल का जमाना तो था नहीं.
हम सब इंतजार कर रहे थे कि कुछ खबर मिले. खबर मिल नहीं रही थी. उसका भी मन बहुत बेचैन था. मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था. हम सोच रहे थे करे तो करे क्या? हम बस यही सोच रहे थे कि एक इंसान गलती करता है और कितनी बेकसूर मारे जाते हैं. उस समय लोगों को यह होश कहां होता है, यह सब सोचने के लिए उन्हें तो बस जुनून होता है बदला लेने का.
हमने देखा छोटे-छोटे बच्चे भूख से बिलख रहे थे. फिर मैंने हिम्मत करके गेट कीपर से बात की और परमिशन लेकर अपने घर आ गई. मेरे घर में वहां की बातें बताई. उस समय ठीक छठ पूजा खत्म हुआ था. घर में बहुत सारे फल और ठेकुआ पड़े हुए थे. फिर हमने सारे फल और ठेकुआ लेकर उनके पास पहुंचा दिया. बच्चों को देखकर लगा कि उनके चेहरे पर खुशी झलक आई थी. दंगाई तो दंगा कर लेते हैं यह सोचते नहीं कितने बच्चे कितने इंसान बिछड़ जाते हैं आखिर इंसान ही इंसान का दुश्मन क्यों हो जाता है?
इतना सोचने का दिमाग नहीं था पर अब सोचती हूं आखिर क्यों इतने घर उजड़ जाते हैं? सालों तक या यूं कहिए कि सारी उम्र उस दर्द को भुला नहीं पाते हैं? ऐसा ही कुछ हो गया था आरती के साथ. लगभग एक हफ्ता हॉस्पिटल में रहने के बाद आंटी चल बसी थी. आरती तीन बहनों में सबसे बड़ी थी. दोनों बहनें काफी छोटी थी. एक तो दंगा उस पर इतना बड़ा हादसा. आरती को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उसके चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दे रहा था. हमारी उम्र ही क्या थी. जो हम समझा सकते थे. फिर भी हमने उसको हिम्मत बढ़ाया और समझाने की कोशिश की.
कुछ दिनों बाद जब सब शांत हो गया तो सभी अपने-अपने घर आ गए. आरती भी दोनों बहनों और अंकल के साथ घर आ गई थी. घर पर चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था. कल तक जिस घर में 5 लोग रहते थे वहां अब चार ही लोग थे. उस समय मैं हर रोज उसके घर जाती थी, वहां पर वह यही गाना सुना करती थी “जिंदगी की यही रीत है हार के बाद ही जीत है” उसको इस गाने से बहुत हिम्मत मिलती थी. फिर धीरे-धीरे करके अपना पढ़ाई जारी रखते हुए दोनों बहनों को भी पढ़ाया. अंकल को भी संभाल लिया था.
आज उसकी दोनों बहनें अच्छे पद पर नौकरी करते हुए कनाडा में सेटल हो गई, आरती भी आज प्रोफेसर बनकर लुधियाना में सेटल हो गई है. सोचती हूं क्या गलती थी उन लोगों की सजा तो उनको मिली जो बेकसूर होते हैं. सारी उम्र दर्द उनको सहना पड़ता है उस दर्द का जिम्मेदार कौन होता है ? हमारा समाज या वे लोग जो दंगा करते हैं, मगर किसी के पास इसका जवाब नहीं है और ना होगा?