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मजदूरों की पीड़ा
मजदूरों की हाय ये हालत क्या हो गई भगवान,
शहर में हम कदम ना रखेंगे मन में ली अब ठान।
मजदूर गाँव छोडकर शहर जाने को मजबूर था,
पेट के खातिर काम किया यही उनका कसूर था।
हाथ पाँव चोटिल हुए पैरो में पडे़ छाले और घाव,
फिर भी मजदूर पैदल-पैदल आ रहे है अपने गाँव।
जो बस भेजी थी काँग्रेस ने उन बसों को लौटाया
दयनीय स्थिति मजदूर की कोई घर पहुँच न पाया।
सियासी जंग के चलते आपस में निकली भडास,
मझधार में नैया मजदूर की कैसे पहुँचे घरवास।
मजदूरों की पीडा से ज्यादा इनका अहम जरूरी है।
सरकार की आज्ञा पालन करना श्रमिकों की मजबूरी है।
मजदूरों की हालत देखकर आँखों से अश्रू बह रहे,
इनकी आँखें बयान कर रही ये कितना दुख सह रहे।
प्रवासी मजदूर भटक रहे हैं बेवश और लाचार,
घर भेजने का बंदोबस्त अब कुछ तो करो सरकार।

सुमन अग्रवाल “सागरिका”
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