कृषि प्रधान देश कहे जाने वाला भारत, जहां जय जवान, जय किसान के नारे लगते हैं वहीं के अन्नदाता आज प्रकृति के दोहरे मार से खुद को बचाते नजर आ रहे हैं. कोरोना से हुए लॉक डाउन ने पहले ही किसानों की कमर तोड़ दी थी.
बंपर पैदावार होने के बावजूद मंडियों के बंद होने से अनाज किसानों के घरों तक ही सीमित रह गया. सरकार ने ऑनलाइन बिक्री की सुविधा तो उपलब्ध करा दी पर भूल गई कि भारत में तकनीकी साक्षरता का स्तर अभी बहुत कम है.
खेतों में ट्रैक्टर चलाने वाला किसान ई- मार्केट ,ऑनलाइन पोर्टल, ई -पेमेंट जैसी चीजों से अब भी कोसों दूर है. परिणामस्वरूप ऑनलाइन सेल्स का लाभ कुछ किसानों को तो मिला पर हजारों किसान आज भी अपने खून -पसीने की मेहनत को औने पौने दामों में बेचने को तैयार है.
यह तो हुई किसानों के एक वर्ग की बात यदि इनके दूसरे वर्ग की बात करें जो मौसमी फलों ,सब्जियों में निवेश करते तो उनकी स्थिति तो और भी ज्यादा दयनीय है. बाजारों में मांग की कमी के चलते उनके फसल खेतों में ही पड़े हैं. यह किसान अब भी इस आस में बैठे थे कि लॉक डाउन में छूट के बाद शायद बाजारों की रौनक फिर से लौट सकें और यह अपने उपज का मेहनताना निकाल सके .
पर कहते हैं ना जब ऊपर वाले की लाठी चलती तो कोई इससे बच नहीं सकता . एक तरफ जहां किसान इस आस में थे कि मुनाफा ना सही पर कम से कम इतना मिल जाए कि उनके कर्जे चुक सकें. वहीं दूसरी तरफ से टिड्डियों का झुंड उनकी रही सही हिम्मत तोड़ने आ गया.
लाखों की संख्या में टिड्डियों ने राजस्थान ,यूपी ,पंजाब के खेतों में आक्रमण बोल दिया है. खेतों में लहराते फसल बंजर भूमि में बदल गए हैं. इनके रास्ते में जो आया सब बिखर गया और साथ ही बिखर गया वह किसान जो रोज अपने खेतों में इस उम्मीद से जाता था की देर ही सही पर इन फसलों को उसकी सही कीमत मिल जाएगी.
यहां पर यह समझना बेहद आवश्यक है कि कैसे टिड्डियों का झुंड इतना नुकसानदेह हो सकता, जो बड़े से बड़े किसान की भी रीड की हड्डी तोड़ दे.एक टिड्डे का औसत वजन 5 ग्राम के आसपास होता है और इतना ही इनके भोजन की खुराक होती .
इनका जीवन चक्र 90 दिनों का होता, इन्हीं 90 दिनों में यह कम से कम 3 बार प्रजनन करते है . इसी कारण इनका झुंड इतना विशाल होता . भारत की बात करें तो यहां टिड्डियों का झुंड 3 से 5 वर्ग किलोमीटर के दायरे तक का होता है.
टिड्डियों की इतनी जनसंख्या के कारण ही इनमें भोजन की मांग हमेशा बनी रहती .परिणामस्वरूप इनके रास्ते में जो कुछ भी आता वह नेस्तनाबूद हो जाता. यह पेड़ों के पत्तों से लेकर सड़कों के किनारे लगे झाड़ी व घास के मैदान तक को सफाचट कर देते . किसानों के लहराते खड़े फसल इनका आसान निशाना बन जाते ,जिस कारण जब वे खेतों से गुजरते तो सीवा फसलों के तनों के कुछ नहीं बचता .
शोर करना, धुआं कर उन्हें अपने खेतों से दूर रखना कुछ अस्थाई उपाय हो सकते . पर टिड्डियों के इतने बड़े दल से लड़ना कहां एक अकेले किसान के लिए संभव हो पाया है. यह उस एकतरफा युद्ध की तरह है जहां कुछ वीर योद्धा अपने पुराने हथियारों के साथ लाखों की फौज को ललकार रहे हो.
रासायनों का उपयोग या उर्वरकों का छिड़काव टिड्डियों को तो भगा सकता पर इससे होने वाली भूमिगत क्षति को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता. एक ऋतु के फसलों को बचाने में सालों तक धरती को बंजर करना कहीं से भी यथोचित नहीं.
भारत के ज्यादातर अन्नदाता गरीब है कर्जों के बोझ तले दबे है. प्रकृति की यह दोहरी मार आखिर कब तक कोई किसान झेल पाएगा . सरकारों के द्वारा सहयोग ऊंट के मुंह में जीरे के समान है और आत्मनिर्भरता की सोच सदियों से बिचौलियों के द्वारा शोषित किसान के लिए सपने की तरह है.
जब कृषि प्रधान देश के अन्नदाता ही भूखे पेट सो रहे हो तो कैसे कोई देश विकास में गति प्राप्त कर सकता . जिस तरह से लॉक डाउन में श्रम दाताओं के रोजगार छीनने से हजारों हाथ उनके सहयोग के लिए बढ़े उसी तरह अन्नदाताओं के लिए भी क्यों नहीं बढ़ सकते.
हम भारतीय एकजुटता की मिसाल है, हम इस मुश्किल की घड़ी में अपने किसानों को दो धारी तलवार से कटने को नहीं छोड़ सकते . हर एक भारतीय जिसने इस देश का अन्न खाया है उसे इन किसानों की मदद करनी चाहिए. ताकि कोई किसान आत्महत्या की दहलीज तक ना पहुंच सके और यह भारत कृषि प्रधान देश बना रहे.