बैजनाथ आनंद,
अनोखेलाल मस्तमौला व्यक्ति हैं, लेकिन चंचल स्वभाव के कारण वे बहुत परेशान भी रहते हैं. मन्दिर में जब भक्तों की भीड़ रहती है, उनका ध्यान बहुत जल्द लग जाता है, एकदम ध्यानस्थ हो जाते हैं, लेकिन जब मन्दिर में लोग न हों, तब उनका ध्यान ही नहीं लगता, उनकी पूजा बहुत जल्दी पूर्ण हो जाती है, पता ही नहीं चलता है कि कब मन्दिर आए और कब लौट गए.
एक दिन गांव में महात्माजी आए, सब लोग उनसे प्रश्न पूछने लगे. अनोखेलाल ने भी एक गुरु गंभीर प्रश्न पूछा – कुछ लोग भगवान का दर्शन करने मन्दिर जाते हैं, लेकिन भगवान के समक्ष पहुंचते ही आंखें बंद कर लेते हैं. इसका क्या अर्थ है ?
महात्माजी ने इस प्रश्न को गंभीरता से लेते हुए, कहा- आजकल तो पर्व-त्योहार भी दो हो गए हैं, साधु-सन्यासी का अलग होता है और संसारी लोग का अलग होता है. मन्दिर वही है, जहां परमात्मा विराजमान है. एक मन्दिर है, जो स्वयं परमात्मा के पवित्र कर कमलों से निर्मित है, वहां परमात्मा जीवन्त है, वहां प्राण-प्रतिष्ठा पूजन के अनुष्ठान के बिना ही प्राणों का स्पनदन हो रहा है. वह परमात्मा हंसता है, बोलता है, मुस्कुराता है, स्पर्श करता है, प्रेम करता है, आशीष देता है, आशीर्वाद देता है. वह संकटहर्ता है, सुखदाता है. वह मातृवत है, पितृवत है, बंधुवत है, मित्रवत है.
यहां मन्दिर शब्द का अर्थ विचारणीय है. मन्दिर शब्द का सीधा, सरल अर्थ है – “मन के अन्दर” अर्थात परमात्मा मन के अन्दर विराजमान है. इसे प्रभु का अन्तर्यामी स्वरूप कहते हैं. यह थोड़ा सूक्ष्म है. कुछ लोग कहते हैं – प्रभु का यह स्वरूप साधु-सन्यासियों के लिए है. इसलिए मन्दिर में जब कभी भक्ति गहरी होती है, इन्द्रियां शांत हो जाती हैं, आंख बंद हो जाता है, मन अन्तर्मुख हो जाता है, तब बड़ी शांति मिलती है, तृप्ति मिलती है, आनन्द मिलता है, अच्छा लगता है.