सतीश कुमार सिंह,
सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस,
नई दिल्ली: एका एक पिछले तीन महीनो में आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती हुई दिखने लगी हैं. यह भी हो सकता है कि आत्महत्या तो होती रहती हैं, शायद हम ही देख नहीं पा रहे थे. हाल के दिनों में यदि अनेक किसानों ने आत्महत्या की तो आई आई टी और मेडिकल में पढ़ने वाले कुशाग्र बुद्धि के युवाओं ने भी आत्महत्या का दामन थामा. पिछले महीने बहुत सारे प्रवासी कामगार मर्दों को जब लगा कि और मुश्किल नहीं सह सकते, परिवार का बोझ और नहीं उठा सकते तो आत्महत्या कर लिया.
क्या ये आत्महत्या है, हत्या नहीं?
हममें से बहुत सारे संवेदनशील लोंगों को तो आत्महत्या दिखी, दुःख भी हुआ और हर आत्महत्या पर मन में यह प्रश्न भी उठा कि क्या यह सही में आत्महत्या है? कहीं यह हत्या तो नहीं? कही हम सभी इन हत्या के जिम्मेदार तो नहीं?
जाहिर है आत्महत्या करनेवाला जितना नामी गिरामी होगा, दुःख व्यक्त करने वाले उसी अनुपात में दुःख व्यक्त करते हुए दिखाई पड़ेगें. पर प्रश्न यह है कि इसे हत्या क्यों ना मानी जाये? क्या इसमें परिवार, समाज, सरकार, शिक्षा संस्कृति का कोई योगदान नहीं है?
आत्महत्या और मर्दानगी
आज जिस पैमाने पर सफलता की समारोह मनायी जाती है और सफलता को विशेष रूप मर्दों की मर्दानगी से जोड़ कर देखा जाता है, वह भी इस परिणाम का कारक है. इस मर्दानगी की अवधारणा में मर्दों का असतित्व ही सफलता पर टिका है और यह सफलता पूरी तरह स्पर्धा पर टिकी है. हर बात में कम्पटीशन. जिन्दगी पूरी तरह कम्पटीशन बन कर रह गयी है. हम यह भूल गए हैं कि इस कम्पटीशन में कुछ ही जीतने वाले हैं, बाकी या ज्यादा लोग तो हारने वाले ही हैं. फिर भी हम इसी दौड़ में लगे हैं.
हार और जीत जीवन का अहम हिस्सा
जिंदगी का एक और सच है. जीवन सहयोग से, सहभागिता से, परस्पर र्निर्भरता से चलता है, जिसे हम भूलते जा रहे हैं. हम सब यह भूल रहे हैं कि जिन्दगी में हार और जीत दोनों शामिल हैं. यदि जीत से उर्जा मिलती है तो हार से सीख मिलती है. फिर हमारी शिक्षा और संस्कृति में हार का प्रबंधन करना क्यों नहीं सिखाया जाता? कहीं मर्दों का हार प्रबंधन ना कर पाना उनके जीवन के अस्तित्व से तो जुड़ा नहीं है?
आज निश्चित रूप से हमारी आर्थिक, सामजिक, राजनितिक व्यवस्था कमजोर, विरोधी और असंवेदनशील होती जा रही है. हम नहीं कह सकते हैं कि ज्यादातर कमजोरों के हार का कारण वे स्वयं हैं. इसमें आर्थिक व्यवस्था बहुत हद तक जिम्मेदार है. लेकिन चाहे कमजोर हो या मजबूत, हर मर्दो के साथ जुड़ी आक्रामक मर्दानगी पर भी प्रश्न करना होगा.
विश्व के कुल आत्महत्या का लगभग 37% भारत में होता है और इसमें लगभग 64% पुरुष हैं. भारत में इतने आत्महत्या, विशेषकर पुरुषों में आखिर कारण क्या है. भारत में यह आक्रमक मर्दानगी बहुत सारे मर्दों का बैंड बजा देगी अगर इसपर समय रहते विचार नहीं किया गया. मर्दों को यह सीखना होगा और सिखाना होगा कि वह अपने दुखों, दर्दों और कमजोरियों को औरों के साथ साझा करें. इससे उन्हें जीवन में संघर्ष करने की ताकत मिलेगी. और यह याद रखना होगा कि जीवन तो संघर्षों से भरा है. हमें यह भी सोचना होगा कि मर्द क्यों अपना दुःख दर्द साझा नहीं कर पा रहा हैं. उन्हें क्यों लग रहा है कि “हमें सुना नहीं जाएगा.” क्या हमारे इस समाज ने ऐसा माहौल तो नहीं बना दिया है या यह समाज इतना संवेदनशील ही नहीं है जहाँ मर्द खुल कर अपने दुःख दर्द को साझा कर सकें. अगर हम चाहते है कि मर्द अपने दुःख दर्द औरों के साथ साझा करें, तो हमें उन्हें ऐसा करने के लिए अनुकूल वातावरण बनाना पड़ेगा. यदि हम उपयुक्त वातावरण नहीं बना पाए, सफलता के समारोहिकरण की प्रथा और दबाव को नहीं रोका और हार के प्रबंधन को नहीं सिखाया तो मर्दों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं का सिलसिला जारी रहेगा और यह बढ़ता ही जायेगा. और ये आत्महत्या कम और हत्या ज्यादा होगीं.
आईये हम सब अपने आस-पास, अपने परिवार, समुदाय में ऐसा माहौल बनाए कि हर मर्द अपने ऊपर जबरदस्ती ओढ़ी हुई ओछी मर्दानगी से बाहर आकर अपने मानवीय गुणों का विकास करे और मानवता के मूल्यों को आगे बढ़ाने में योगदान करे. हम सभी एक दूसरे को भरोसा दिलाएं कि उनको पूरी संवेदनशीलता और सम्मान के साथ सुना जायेगा. एक दूसरे को महसूस करायें कि हम उनके साथ हैं.