रांची: पहले जो संपादक होते थे, अपने संवाददाताओं और डेस्क के लोगों को सिखाते रहते थे. कुछ मीडिया संस्थानों को छोड़ दें, तो बाकी का हाल बहुत ही मजेदार है. वहां पत्रकारिता के छात्रों को नहीं पता होता कि रिपोर्ट, स्टोरी, न्यूज ब्रेक और स्कूप में कोई फर्क है भी या नहीं. आजकल तो अक्सर देखते हैं कई टेलीविजन न्यूज चैनल एक साथ सुबह से शाम तक ब्रेकिंग न्यूज लिखकर खबर चलाते रहते हैं. इन शब्दों का अर्थ आज के ‘महान संपादकों’ ने समाप्त कर दिया है.
रिपोर्ट, स्टोरी, न्यूज ब्रेक और स्कूप का अर्थ संपादक को तो कम से कम पता होना चाहिए. शायद बहुतों को पता होता भी होगा, पर वे इसे याद नहीं रखते और ना इसका इस्तेमाल करते हैं.
क्या होती है रिपोर्ट
रिपोर्ट वह होती है, जिसे सभी पत्रकार करते हैं और अक्सर एक ही तरह से करते हैं. घटना घट जाती है और सभी संवाददाता उसे कवर करते हैं, इसमें भाषा के बदलाव के अलावा कुछ अलग नहीं होता.
स्टोरी क्या होती है
स्टोरी वह होती है, जिसे दबाने की कोशिश की जाती है, लेकिन संवाददाता खोज कर दबाए जाने वाले विषय को ऊपर ले आता है. प्रशासन, राजनेता, बाहुबली आदि दबाने वाले तत्व होते हैं, पर संपादक का यह कर्तव्य होता है कि वह उसे दबने नहीं दे. और यही दबी हुई चीज स्टोरी होती है. अक्सर रिपोर्ट और स्टोरी को एक समझने की गलती हो जाती है, जो नहीं होनी चाहिए.
न्यूज़ ब्रेक या ब्रेकिंग न्यूज़
न्यूज ब्रेक वह है, जो घटना घटने के बाद सबसे पहले पाठकों या दर्शकों तक पहुंचाई जाए. आजकल देखा गया है कि एक ही घटना को कई चैनल एक साथ ब्रेकिंग न्यूज के रूप में दिखाते हैं और दिखाते ही चले जाते हैं. लेकिन जो सबसे पहले दिखाए, उसे ही न्यूज ब्रेक कहने का अधिकार है, बाकी को नहीं. यही समय के खिलाफ दौड़ (रेस अगेंस्ट टाइम) है.
स्कूप क्या है ?
चौथा शब्द स्कूप है, यह आजकल गायब हो गया है. आपमें से बहुत से लोग इसे पहली बार सुन रहे होंगे. स्कूप उसे कहते हैं जो केवल एक संपादक की टीम के पास होता है, जिसे वह छापता या दिखाता है. बाकी लोग उसका फॉलो अप करते हैं. लेकिन आजकल तो फॉलोअप की परंपरा समाप्त हो गई है और स्कूप दिखाने वाले लोग भी स्वयं स्टोरी का फॉलोअप नहीं करते. स्कूप किसी भी तरह का हो सकता है, पर होता वह चौंकाने वाला है.
संपादक का न्यूजसेंस भी संवाददाता को प्रेरित कर सकता है, पर स्कूप के लिए आवश्यक है कि संपादक सावधान रहे, अन्यथा खंडन आने की स्थिति में उसकी साख को धक्का लग सकता है. अब यह शायद बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गया है, क्योंकि समाचार चैनलों में भूल सुधार की या गलती की माफी मांगने की परंपरा समाप्त हो गई है. बहुत सारे चैनल धड़ल्ले से गलत खबर दिखाते हैं और उसके ऊपर उन्हें कोई संकोच भी नहीं होता.
पिछले एक दशक में पत्रकारिता में आया काफी बदलाव
पहले संपादक इस बात के लिए हमेशा सावधान रहते थे कि कहीं उनके अखबार, पत्रिका या चैनल का इस्तेमाल कोई निहित स्वार्थ तो नहीं कर रहा है? कोई स्टोरी या रिपोर्ट प्लांट तो नहीं करा रहा? असावधानीवश कभी-कभी ऐसा हो जाए तो उसकी पूरी जिम्मेदारी संपादक की होनी चाहिए. खबरों के संसार में रहने वालों को अक्सर इस बात का ध्यान नहीं रहता कि किसी के बारे में गलत छप जाने से उस व्यक्ति का सामाजिक अपमान हो जाता है और उसकी प्रतिष्ठा पर चोट आती है, जो बाद में खंडन के छपने के बाद भी वापस नहीं आती. संपादक का कर्तव्य है कि ऐसी रिपोर्ट, जिसमें व्यक्तिगत आरोप हों, उसकी छानबीन के लिए संवाददाता से अवश्य कह दे. सही बात रुकनी नहीं चाहिए और गलत बात छपनी नहीं चाहिए. यह संपादक का एसिड टेस्ट है. मैं इसे एसिड टेस्ट इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि हो सकता है संवाददाता गफलत में इसे भूल जाए पर अगर संपादक भी भूल जाए तो यह बहुत बड़ा अन्याय होगा.
संवाददाता रिपोर्ट भेजता है, पर हो सकता है वह रिपोर्ट बिल्कुल सपाट हो, उस रिपोर्ट को एंगल देना संपादक का काम है. रिपोर्ट को चुनते वक्त तथा उसे एंगल देते वक्त संपादक को देखना चाहिए कि रिपोर्ट का मानवीय पक्ष कहीं छूट तो नहीं रहा है. उसे यह भी देखना चाहिए जो रिपोर्ट की जा रही है, उसके पीछे कोई उद्देश्य तो नहीं है? अच्छे संपादक का बुनियादी कर्तव्य है कि किसी व्यक्ति विशेष को दुख पहुंचाने के लिए किसी या किसी समुदाय की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने के लिए खबर नहीं जाने दे. इसका पूरा ध्यान रखें कि यह किसी हालत में ना हो.
अच्छे संपादक या ऊर्जावान संपादक को स्वयं में भी स्पष्ट होना पड़ता है उसे अपनी स्वयं की महत्वाकांक्षा स्पष्ट रूप से पहचाननी चाहिए. क्या वह सचमुच अच्छा या बड़ा संपादक बनना चाहता है या उसके अवचेतन मन में कुछ और चल रहा है. यदि वह अपने मन का विश्लेषण नहीं करता तो हमेशा भ्रमित रहेगा. एक तरह के लोग होते हैं जो समाज और राजनीति को केवल प्रभावित करना चाहते हैं. ऐसे लोग हमेशा पत्रकारिता से जुड़े रहते हैं. कुछ ऐसे होते हैं जो पत्रकारिता का सहारा लेकर राजनीति में हिस्सा लेने की आकांक्षा पाले रहते हैं. तीसरे ऐसे होते हैं जिनका लक्ष्य ही राज्यसभा होता है. ऐसे लोग ज्यादा खतरनाक होते हैं. क्योंकि यह समाचारों को एक विशेष विचारधारा के चश्मे से देखने लगते हैं. चाहे लेख लिखें, चाहे समाचार को एंगल दें या फिर चैनल पर खबर पढ़ें अथवा किसी का साक्षात्कार लें, यह सब विशेष उद्देश्य के लिए ही होता है. जब यह राज्यसभा में पहुंचते हैं, तभी वे अपने असली रूप में होते हैं और तब पता चलता है कि इनकी सारी पत्रकारिता एक दल विशेष की विचारधारा का प्रोपेगेंडा भर थी.
संपादक की प्राथमिकता
ऐसे लोगों की प्राथमिकता पत्रकारिता नहीं होती। अच्छे संपादक की प्राथमिकता पत्रकारिता ही होनी चाहिए, क्योंकि सच का चेहरा बदलने की कोशिश करना पत्रकारिता के पेशे के साथ विश्वासघात करना है. सच के पक्ष में खड़े रहने का अधिकार किसी भी संपादक को है, चाहे वह किसी जिले से निकलने वाला अखबार हो या राजधानी से निकलने वाला अखबार हो. सच के कई पक्ष नहीं होते, सच का केवल एक पक्ष होता है और वह खुद सच है. सच के पक्ष में खड़ी पत्रकारिता ही संपादक की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए.
संपादक के ऊपर ही निर्भर करता है कि वह अपने अखबार, पत्रिका या चैनल की कितनी साख बनाता है. साख बनाने की क्षमता उसकी परीक्षा है. यदि उसकी टीम द्वारा लाई गई रिपोर्ट का खंडन अक्सर हो, तो साख बन ही नहीं सकती. संपादक को हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि यदि किसी क्षेत्र के बारे में गलत रिपोर्ट आती है तो भले ही दूसरे क्षेत्र के लोग सच्चाई ना जानें, पर जिस क्षेत्र की रिपोर्ट छपी है, वहां तो साख पर सवालिया निशान लग ही जाता है. साख बनाना और बनी साख की रक्षा करना संपादक का बुनियादी दायित्व है.
संपादक और मैनेजर में फर्क
संपादक और मैनेजर का फर्क स्वयं संपादक नाम की संस्था के लिए आवश्यक है. संपादक मैनेजर के रूप में तब्दील नहीं हो जाए, इसके लिए संपादक को ही सचेत रहना होगा. संपादक यदि अपनी टीम की केवल सुख सुविधा का ध्यान रखे तो उसे मैनेजर के रूप में बदलने में ज्यादा देर नहीं लगती पर यदि वह अपनी टीम का नेतृत्व करे, तभी वह संपादक के नाते इज्जत पा सकेगा. दरअसल, आज बाजार के युग में अच्छी पैकेजिंग वाले संपादक ज्यादा नजर आ रहे हैं जो कि अपने संगठन को संपादकीय नेतृत्व कम, बल्कि बाजार को समझने वाले व्यक्ति के रूप में ज्यादा पेश कर रहे हैं. इसलिए जब चैनल, अखबार या पत्रिका में जब संपादकीय विषय वस्तु में प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है, तब परेशानी आ जाती है. बाजार को समझना एक चीज है और बाजार का ही संपादक बनाना बिलकुल दूसरी. संपादक का काम अलग है और मैनेजर का अलग. यह अलग ही रहे, तभी पत्रकारिता अपने मूल रूप में लोगों की सेवा कर सकती है.
संपादक का किरदार प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक में एक ही है. उसके गुण भी एक ही हैं, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एक नई चुनौती आ गई है. यहां सारी खबरें बाइट बेस हो गई हैं. टीवी पर किसी खबर की शुरुआत और अंत का ही पता नहीं चलता. यहां संपादक का सबसे बड़ा काम अधूरी बाइट बेस स्टोरी कर दर्शक को अधर में छोड़ना नहीं है. न्यूज चैनल में कुछ का हाल तो यह है कि अपनी ही रिपोर्ट को कुछ घंटों बाद ही बदल देते हैं और गैर जिम्मेदारी की हद यह है कि दर्शक को यह नहीं बताते दोनों में सच कौन है.
हमारे देश में न्यूज चैनलों की बाढ़ आ गई है. उसने संपादकों की नई सेना तो खड़ी कर दी, जिन्होंने ग्लैमर तो अपनाया पर जिम्मेदारी नहीं समझी. एक ने कभी तो दूसरे ने कभी, गलती अवश्य की. अगर संपादक अपनी जिम्मेदारी समझे तो यह स्थिति सुधर सकती है. केवल एक बात संपादक की समझ में आनी आवश्यक है, उसका पहला कर्तव्य जनता या दर्शक के प्रति है, इसलिए उससे कोई भी बेईमानी नहीं होनी चाहिए.
श्रेय देने की उदारता
संपादक को दूसरों को भी श्रेय देने की उदारता अपने अंदर पैदा करनी चाहिए. अगर वह अपनी टीम के सदस्यों को उनके द्वारा की गई मेहनत का श्रेय देता है तो इससे न केवल उसका बड़प्पन जाहिर होता है, बल्कि वह अपनी टीम को और ज्यादा मेहनत से काम करने का वातावरण भी देता है. संपादक जितना ज्यादा श्रेय दूसरों को देगा, उसे उतना ही ज्यादा सम्मान मिलेगा. संपादक अपनी टीम का कप्तान होता है. संपादक अगर हट जाए तो अखबार, पत्रिका या चैनल की हालत पर फर्क पड़ता है. एक सोच यह है कि संपादक अगर टीम को सही रूप में खड़ी करे तो उसके हटने से बहुत फर्क नहीं पड़ता. संस्थान वैसे ही चलता रहता है लेकिन देखने में ऐसा नहीं आता.
संपादक कल्पनाशील संस्था की तरह काम करता
संपादक के स्थान पर बैठा व्यक्ति केवल एक आदमी के नाते काम नहीं करता, बल्कि वह कल्पनाशील संस्था की तरह काम करता है. संपादक के हटने के कई उदाहरण हैं. सुरेंद्र प्रताप सिंह के रहते ‘रविवार’ निकलता था, उनके जाने के बाद भी निकला. ज्यादातर लोग वही थे, पर रविवार की धार बदल गई. ठीक यही जब ‘संडे’ से एमजे अकबर चले गए, तब हुआ. अकबर के जाने के बाद संडे के सर्कुलेशन की कभी बात हुई ही नहीं, उसकी क्रेडिबिलिटी की ही बात हुई. ‘आजतक’ इसका दूसरा उदाहरण है, जहां सुरेंद्र जी के रहते हिंदी ने पहली बार टीवी जर्नलिज्म में इतिहास बना दिया, पर सुरेंद्र जी के जाने के बाद आज तक उनकी बनाई संपादकीय नीति पर चलती रही. उसे विज्ञापनों के जरिए अपनी संपादकीय महत्ता दिखाने की जरूरत नहीं पड़ी, लगभग हर अखबार में ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे. विनोद मेहता के समय का ‘संडे ऑब्जर्वर’ आज भी लोगों के मानस पर है तथा ‘आउटलुक’ विनोद मेहता की वजह से ही पाठकों के बीच इतना लोकप्रिय हो पाया. अरुण शौरी के समय का ‘इंडियन एक्सप्रेस’ आज भी याद किया जाता है.
दूसरा संपादक जब आता है, तब वह अपनी छाप डालता है. वह पहले से अच्छी या बुरी हो सकती है पर वैसी कभी नहीं होती. संपादक हटे और वहां संस्थान अपना नियंत्रण कायम रखने के लिए अपना आदमी बैठा ले तो यह संस्थान के लिए भी बुरा होता है और पत्रकारिता के लिए भी. अक्सर प्रबंधन को डर लगने लगता है कि संपादक की छवि यदि प्रबंधन से बड़ी हो जाएगी तो अच्छा नहीं रहेगा. यहीं प्रबंधन बहुत बड़ी गलती कर बैठता है. संपादक जहां संपादकीय टीम का नेता होता है, वहीं वह बाजार में प्रबंधन का चेहरा भी होता है. अच्छे संपादक के साथ काम करने के लिए अच्छे पत्रकार हमेशा तैयार रहते हैं जो सामान्य संपादक के आते ही इतना काम नहीं करते. आज के सभी न्यूज चैनल इसके अलग-अलग उदाहरण है. प्रबंधन इस सलाह को कितना मानेगा, पता नहीं पर वह अच्छे संपादकों को लाए और उन्हें अपमानित या नियंत्रित करने की जगह काम करने का स्वतंत्र मौका दे तो इससे जितना पत्रकारिता का फायदा होगा, उतना ही प्रबंधन का.
मैं यह सारी बातें इस आशा से लिख रहा हूं कि कम से कम प्रतिक्रिया मिले और विश्लेषण भी हो तथा आज के संपादक कसौटी पर कसे भी जाएं. अगर यह सारी बातें गलत हैं तो अब संपादक को कैसा होना चाहिए, इसकी भी परिभाषा बनाई जाए. क्या संपादक नाम की संस्था के ऊपर कोई परिभाषा सार्थक हो सकती है?