आजादी के बाद से ही सभी धर्मों के लिए एक ऐसे कानून बनाए जाने की बात होती रही है जो सब पर एक समान लागू हो। हालांकि अभी तक सहमति नहीं बन सकी है। पूर्व में हिंदू कोड बिल और अब तत्काल तीन तलाक पर बना कानून इस दिशा में बड़े कदम माने जा रहे हैं। मोदी सरकार ने तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाकर महिला सशक्तीकरण की दिशा में बड़ी जमीन तैयार की है। अब समान नागरिक संहिता की संवैधानिक कल्पना साकार हो सकती है। अभी देश में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोगों के लिए शादी, बच्चे को गोद लेना, संपत्ति या उत्तराधिकार आदि मामलों को लेकर अलगअलग नियम है। लिहाजा किसी धर्म में जिस बात को लेकर पाबंदी है, दूसरे संप्रदाय में उसी बात की खुली छूट है। इससे देश के बीच एकरूपता नहीं आ पा रही है।
शाहबानो मामले में सुधार करने का सूत्रपात सुप्रीम कोर्ट की तरफ से हुआ था। तत्कालीन केंद्र सरकार की उसमें कोई भूमिका नहीं थी। तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने तो वह राहत जो न्यायालय ने अपराध प्रक्रिया संहिता के अनुच्छेद 125 के तहत 67 साल की एक असहाय बूढ़ी महिला को मुहैया कराई थी, उसे भी कानून बनाकर छीन लिया था। अनुच्छेद 125 का कोई संबंध पर्सनल लॉ से नहीं था। पर्सनल लॉ सिविल मामला है और अनुच्छेद 125 अपराध संहिता का प्रावधान है जिसका उद्देश्य दरिद्रता तथा भटकाव की स्थिति को रोकना है।
इस प्रावधान के अंतर्गत यदि कोई अपने ऊपर आश्रित व्यक्ति के भरण पोषण की जिम्मेदारी से कन्नी काटता है तो पीड़ित व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकता है। न्यायालय पीड़ित को एक निश्चित राशि गुजारा भत्ता के रूप में दिला सकता है। इसकी अधिकतम सीमा 1986 में 500 रुपये थी। न्यायालय ने शाहबानो को केवल 174.20 रुपये प्रति माह देने का आदेश दिया था। लेकिन शाहबानो के पति ने इस्लामिक क़ानून का हवाला देकर कहा कि ऐसा करना मुस्लिम पति की जिम्मेदारी नहीं है और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने वादी का समर्थन किया।
सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा हारने के बाद बोर्ड ने अदालत के निर्णय के विरुद्ध पूरे देश में एक अत्यंत आक्रामक अभियान छेड़ दिया जिसमें उसने अदालत के निर्णय को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप बताया और यह कहा कि इससे मुसलमानों का मिल्ली तशख़्ख़ुस (सामुदायिक पहचान) खतरे में पड़ गई है। अभियान के बीच बहुत हिंसक भाषा का प्रयोग हुआ। आखिरकार प्रचंड बहुत वाली तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने बोर्ड के सामने घुटने टेक दिए और एलान किया कि 5 फरवरी 1986 से आरंभ होने वाले शीतकालीन सत्र में एक विधेयक लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी बना दिया जाएगा।
सरकार का यह कदम ना केवल प्रतिगामी शक्तियों के सामने शर्मनाक समर्पण था बल्कि इस प्रस्तावित विधेयक के जरिए उन्होंने जघन्य संवेदनहीनता भी दिखाई। जिसमें उन्होंने 67 साल की एक महिला के मुंह से निवाला भी छीन लिया। वे लोग जिन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में आकर 1986 में कानून बनाकर मुस्लिम असहाय महिलाओं से उनका अधिकार छीना था आज वह फिर बोर्ड के कहने पर उस कानून का विरोध कर रहे हैं जिसके माध्यम से तीन तलाक जैसी कुप्रथा को खत्म किया गया है। कहा जा रहा है कि तलाकतो सिविल मामला है इसे आपराधिक कैसे बनाया जा सकता है और तीन तलाकदेने वाले के लिए सजा का प्रावधान क्यों किया गया है?
ऐसा कहने वाले लोग इस्लामी कानून से परिचित नहीं हैं। इस्लामी कानून में शुरू से ही तीन तलाक को हराम यानी आपराधिक माना गया है और यह काम करने वालों को 40 कोड़ों की सजा दी जाती थी। मुझे पूरा विश्वास है कि जब इतिहासकार इस बारे में लिखेंगे तो वह पायेंगे कि मोदी सरकार के इस फैसले ने न सिर्फ मुस्लिम महिलाओं को एक भयंकर कुप्रथा से मुक्त किया है बल्कि इसके नतीजे में एक नई चेतना और जागृति का सृजन होगा जिससे सभी भारतीय महिलाओं के सशक्तीकरण में सहायता मिलेगी।
हमारा संविधान सभी देशवासियों के लिए एक समान नागरिक संहिता की कल्पना करता है। इस समान नागरिक संहिता का अर्थ आस्था या रीति रिवाज की समानता नहीं है बल्कि यह समानता केवल शादी विवाह के रिश्तों से उत्पन्न दुनियावी अधिकारों तथा जिम्मेदारियों की समानता है। अगर हम इस दिशा में आगे बढ़ते हैं तो वह लोग भी संतुष्ट हो जायेंगे जो आज सजा के मामले में भेदभाव की शिकायत कर रहे हैं।