विधानसभा गठन के बाद वर्ष 1993 में दिल्ली की सत्ता संभालने वाली बीजेपी के लिए 1998 का चुनाव आसान नहीं था। एक तरफ बिजली संकट व प्याज की कमी से जनता में असंतोष था जिसका सियासी लाभ उठाने को कांग्रेस आक्रामक थी, तो दूसरी ओर बीजेपी आपसी लड़ाई में बिखर सी गई थी। इस मुश्किल घड़ी में बीजेपी नेतृत्व ने सुषमा स्वराज की अगुवाई में विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया और वह पार्टी के निर्देश पर केंद्रीय मंत्री का पद छोड़कर दिल्ली की मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी संभाल लीं। वर्ष 1998 में गर्मी के समय बिजली की कटौती से लोग बेहाल थे। इसी दौरान प्याज की कमी भी शुरू हो गई जो कि तत्कालीन भाजपा सरकार के लिए बड़ी मुसीबत बन गई। प्याज के दाम आसमान छू रहे थे और लाख कोशिश के बावजूद सरकार इस पर काबू पाने में विफल रही थी। दूसरी ओर इसका सियासी लाभ उठाने के लिए कांग्रेस सड़कों पर थी। इस चुनावी मुद्दे को धार देने के लिए कांग्रेस ने अभिनेता से नेता बने सुनील दत्त को भी दिल्ली की सड़कों पर उतार दिया था। वह भी प्याज की माला पहनकर बीजेपी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल हुए थे।
प्याज को लेकर जनता में बढ़ रही नाराजगी को दूर करने में वह जुटी ही थी कि नमक की कमी की अफवाह भी शुरू हो गई। दुकानों में नमक खरीदने के लिए लोगों की लंबी लाइन लगने लगी। पहले से सतर्क सुषमा इस साजिश को विफल करने की कोशिश शुरू कर दीं, उन्होंने अधिकारियों को तत्काल जमा खोरों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया। छापेमारी शुरू हो गई और वह खुद भी बाजारों में जनता के बीच पहुंचने लगीं। दुकानों में जाकर वह नमक हाथ में उठाकर लोगों को अफवाहों पर ध्यान नहीं देने की अपील करती थीं, ताकि लोग भरोसा करें।
एक तरफ प्याज के बहाने कांग्रेस भाजपा सरकार को घेर रही थी। वहीं, भाजपा के बड़े नेताओं की गुटबाजी की वजह से पार्टी का संगठनात्मक ढांचा बेहद कमजोर हो गया था। मदन लाल खुराना हवाला कांड में नाम आने पर स्वेच्छा से यह कहते हुए मुख्यमंत्री पद त्याग दिया था कि आरोप मुक्त होने पर ही वह इस कुर्सी पर बैठेंगे। उनकी जगह साहिब सिंह वर्मा को मुख्यमंत्री बनाया गया था।
दोनों के समर्थकों में दूरी बनी हुई थी। वहीं, वर्मा को हटाने से उनके समर्थक आक्रोशित हो गए थे। भाजपा नेता बताते हैं कि एक सुलझे हुए राजनेता की तरह सुषमा पार्टी को एकजुट करने में सफल रहीं, लेकिन पार्टी को सत्ता में वापसी नहीं करा सकीं।
बीजेपी मात्र 15 सीटों पर सिमटकर रह गई। वह खुद तो हौजखास सीट से चुनाव जीत गईं, लेकिन कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचने से न रोक सकीं। कांग्रेस की शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनीं और सुषमा स्वराज विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर वापस केंद्र की सियासत में लौट गईं।