बात साल 2004 की है। ग्रेजुएशन में एडमिशन लेने के बाद सितंबर में मैं और संदीप (परिवर्तित नाम) ने हजारीबाग में एक लॉज में कमरा लिया और उसमें रहने लगे। हमारा कमरा फर्स्ट फ्लोर पर था। बड़ी सी खिड़की से चार-पाँच किलोमीटर दूर स्थित कनहरी पहाड़ का नजारा साफ देखा जा सकता था।
लॉज मुख्य सड़क से थोड़ी दूर पर खेतों के बीच नया-नया ही बना था। वहाँ तक जाने के लिए कीचड़-पानी पार कर जाना पड़ता था। रात में झाड़ियों के बीच से गुजरना डरावना लगता था। लॉज के सामने गड्ढानुमा खेतों के पार करीब 100 मीटर दूर एक तालाब था। दो दिशाओं से बस्तियों से घिरे होने के बावजूद, सामने और बाईं ओर का हिस्सा वीरान होने के कारण वह लॉज आबादी से कटा-कटा सा लगता था।
बड़े ही आनंद में हमारी पढ़ाई शुरू हो गई। बाकी छात्रों की तरह हम भी रोज खाना बनाकर खाते, कॉलेज जाते और लॉज में भी पढ़ाई-लिखाई करते। कॉलेज-लाइफ मजे में चलने लगी। लेकिन हमें क्या पता था कि हमारी लाइफ में रहस्य-रोमांच का एक और चैप्टर जुड़ने जा रहा था। इसका आगाज कब हुआ यह तो पता नहीं, पर इसकी पहली झलक मिली दीपावली के अगले दिन।
संदीप घर चला गया था। सुबह-सुबह लॉज में मौजूद लगभग सभी छात्र जो दीपावली पर घर नहीं गए थे, एक कमरे में इकट्ठे होकर गप्पें लड़ा रहे थे। हँसी-ठिठोली का वातावरण था। इसी बीच एक ने कहा कि उसे रोज रात में ‘ठक-ठक-ठक’ की आवाज सुनाई देती है। उसकी आवाज में गंभीरता थी और आश्चर्यमिश्रित भय भी।
लगभग रोज रात के आठ-नौ बजे खाना बनाते समय मुझे भी ऐसी ही आवाज कई दिनों से सुनाई दे रही थी। हालाँकि, मैंने उसे पहले इतनी गंभीरता से नहीं लिया था। तब मुझे लगता कि कोई रोटी बेल रहा होगा या गिलास में लहसून-मिर्च को बेलन से कूच रहा होगा। लेकिन बात उठी तो वहाँ मौजूद लगभग सभी लोगों ने न सिर्फ आवाज सुनाई देने की पुष्टि की बल्कि कई तो इसे भूत-प्रेत की संभावनाओं तक ले गए।
लॉज के लगभग डेढ़ दर्जन कमरों में लगभग तीन दर्जन लड़के रहते थे। सभी कमरों में वे लगभग एक ही समय खाना पकाते थे। इस कारण ऐसी आवाज ने मुझे कभी अचंभित नहीं किया।
रात तक पूरी बात लॉज के मालिक तक पहुँच गई। लॉज मालिक शहर के जाने-माने कोचिंग संचालक थे। लॉज में रहने वाले कई छात्र उनसे ट्यूशन पढ़ते थे या पढ़ चुके थे। संदीप भी उनमें से एक था।
संदीप दीवाली बिताकर गाँव से लौटा तो मैने सारी बात बताई। वह भूत-प्रेत में विश्वास करता था। प्रसंगवश उसने यह भी कहा कि कुछ ही महीने पहले सड़क दुर्घटना के शिकार हुए उसके चाचा अक्सर आस-पड़ोस के किसी बच्चे पर आते हैं।
उस वक्त हम नहीं समझ पाए कि हमारे लिए रहस्य, रोमांच और भय से भरपूर एक फिल्म शुरू हो रही थी और वह आवाज उसका ‘टीजर’ था।
लॉज मालिक ने एक-दो बार मीटिंग की और पूछताछ कर सच पता लगाने की कोशिश की लेकिन कुछ साफ-साफ समझ में नहीं आ रहा था।
इस बीच एक बार फिर संदीप अपने घर गया। वापस आया तो एक सिहरा देने वाली कहानी लेकर। उसने कहा कि इस बार फिर उसके चाचा एक बच्चे पर चाचा आए थे। उसके मुताबिक उसने चाचा (की आत्मा) से इस रहस्यमयी आवाज के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि लॉज के बगल की बस्ती में रहने वाली एक लड़की ने प्रेम-प्रसंग में असफलता के बाद कूद कर आत्महत्या कर ली थी जो अब कुँवारे लड़के की तलाश में है। सुनील ने कहा कि चाचा (की आत्मा) ने उसे सलाह दी है कि वह लॉज को छोड़ दे। उन्होंने चेतावनी दी की कि वह (लड़की की आत्मा) किसी को भी मौका पाकर ले जाएगी ( मार डालेगी)। उन्होंने कहा, “मैं वहाँ रहता हूँ तो तुम्हारी रक्षा करता हूँ पर हमेशा रहना संभव नहीं है।”
कहानी ने रोमांचित तो किया, पर डर को बढ़ा दिया। कुछ छात्रों ने तो अपने स्तर से पता लगाकर या शायद खुद से कहानी गढ़कर सबको कह दिया कि लड़की की आत्महत्या वाली घटना बिल्कुल वैसी ही है जैसा सुनील ने बताया है।
समय बीतता गया और रहस्यमयी आवाज अपना दायरा बढ़ाती गई। ठक-ठक की आवाज अब छत पर किसी के चलने-कूदने की आवाज में बदल गई। कभी-कभी ऐसा लगता जैसे छत में लगी छड़ों को कोई जोर-जोर से हिला रहा हो। कभी छत पर ईंट-पत्थर फेंकने की आवाज आती। इन सारी आवाजों को हम से रूम में बंद होकर सुनते और रोमांच महसूस करते। कई बार आवाज आने पर हम सब छत पर जाकर देखते तो कोई निशान नहीं मिलता, पर जैसे ही नीचे लौटते, आवाजें फिर आने लगतीं। एक दिन कूदने की आवाज इतनी जोर से आई कि खिड़की के पल्ले हिलने लगे।
अब हमलोगों ने सच्चाई का पता लगाने की ठान ली थी। रोज रात को पढ़ाई-लिखाई छोड़कर सभी लोग छत पर घंटों बिताने लगे।
एक रात सच्चाई का पता लगाने के लिए कई छात्र एक जगह जमा होकर तैयार थे। छत पर ईंट-पत्थर की आवाज जैसे ही आई, सभी दौड़कर छत पर पहुँचे। चारों तरफ टॉर्च जलाकर देखा तो कोई नहीं था। तभी सीढ़ी से कुछ गिरने की आवाज आई तो सब उसी ओर दौड़े। वहाँ सीढ़ी के प्लेटफॉर्म पर रेत (बालू) चालने की चलनी गिरी पड़ी थी। वह जिस तरह रखा गया था कि अपने आप गिरने की कोई संभावना नहीं थी, लेकिन किसने गिराया इसका पता नहीं चल सका। उस जाड़े की रात हम सब घंटों अलाव जलाकर छत पर रहे लेकिन घटनाओं का कोई सुराग नहीं मिला।
रहस्य-रोमांच का खेल जारी रहा। बीच-बीच में हम लॉज छोड़ने का प्लान बनाते, फिर उसे भूल जाते। संदीप पर लॉज छोड़ने का दबाव उसके घर वाले बनाते रहे। दूसरी ओर मकान मालिक ने झाड़-फूँक का सहारा लेना शुरू किया। इस तरह महीनों बीत गए।
एक दिन मैं कहीं बाहर से लौटा तो लॉज के सभी दरवाजों पर कुछ-कुछ मंत्र जैसा लिखा हुआ पाया। जानकारी मिली कि एक तांत्रिक आए थे। जैसा मुझे याद आता है, उस दिन के बाद से रहस्यमय आवाजें आनी धीरे-धीरे बंद हो गईं। हम शांतिपूर्वक लॉज में रहने लगे। हम करीब सवा साल वहाँ रहे। लॉज में शांति स्थापना के बाद भी जब कभी लौटने में रात हो जाती तो मुख्य सड़क से लॉज तक की दूरी हम डरते हुए तय करते।
करीब 15 साल हो चुके हैं। लेकिन उस समय की कई घटनाएँ आज भी चलचित्र की तरह दिमाग में आ जाती हैं। उस दौरान जो कुछ हुआ वह आज भी रहस्य बना हुआ है।
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किस्सागो