आज लोगों को भले ही सुशासन की अवधारणा मालूम न हो किंतु सभी व्यक्ति यह तो निश्चित ही जानते है कि कुशासन क्या है? .सामान्यतः यह देखा जाता है कि लोगों को न तो लोक प्रशासन के बारे में पता होता है और न ही नवलोक प्रबंधन. साथ ही सुशासन,लोकनीति और लोकरुचि का भी समुचित ज्ञान तो नही हीं होता है. व्यक्ति तो मात्र यही सोचता है कि उसका जीवन सुरक्षित रहे तथा उसे सामाजिक न्याय मिले और उचित रोजगार के अवसर उपलब्ध हों. उसे अपने अधिकारों का यथोचित ज्ञान तो होता है लेकिन उसको कानून और व्यवस्था प्रशासन की समझ नहीं होती है. यहां बताना उचित होगा कि अभिशासन सरकार की क्रिया है, और सरकार एक संज्ञा है, और सुशासन सरकार की भली प्रकार से किया जाने वाला कार्य है.
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सुशासन की अवधारणा का विकास कौटिल्य, अरस्तु तथा प्लेटो के दर्शन शास्त्र में देखा जा सकता है. राम राज्य के रूप में सुशासन की अवधारणा भारत में प्राचीन काल से विकसित रही है,परंतु आधुनिक लोक प्रशासन की शब्दावली में ये शब्द 1990 के दशक में प्रविष्ट हुआ. विश्व बैंक के एक दस्तावेज में सुशासन शब्द का प्रयोग एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में किया गया है, जिससे शासन शक्ति का प्रयोग राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक संसाधनो का प्रबंध करने के लिये किया जाता है. सुशासन की परिकल्पना तभी सिद्ध होती है जब राज्य और केंद्र सरकार के बीच मधुर संबध हो. साथ ही साथ राज्य-राज्य संबंध, सरकार और बाजार संबंध, सरकार और अंतरराष्ट्रीय बाजार संबंध, इन सभी संबंधों में मधुरता हो. तभी सुशासन की उचित महत्ता सामने आएगी.
सामान्यत: प्रशासनिक अधिकारी और राजनेता के बीच संबंध तो इतने मजबूत है, जोकि दूरभि संधि का रूप ले लिया है. ऐसे मे सुशासन की परिकल्पना का क्षरण हो जाता है. वैसे देखा गया है कि सरकार और नागरिक समाज तथा संगठनों के संबंधों में ईमानदारी तथा नज़दीकियां लाने का प्रयास किया जाता रहा है. निश्चित तौर पर यही सुशासन की अवधारणा है.
वर्तमान स्थिति को देखते हुए निश्चित ही चिंता करने की बात है, कि क्या सरकार सुशासन की पटरी से नीचे उतरती जा रही है? हाल ही के घटना में सिद्ध कर दिया है कि आज सरकार निजी क्षेत्रों उद्योगों के साथ मित्रसम न मानकर उन्हें शत्रुसम व्यवहार की नीति अपना रही है. आज निजी क्षेत्रों को तरजीह देने तथा उनको कर मुक्त करने और उनको निवेश करने तथा अधिक से अधिक उद्योग धंधों को बढ़ाने पर जोर देना चाहिए, न की उन पर अत्यधिक करारोपण आदि लगाकर उन को बर्बाद करने की.
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सीसीडी कांड में जो स्वयं लिखित पत्र मिला था, वह यहीं बयां करता है कि किन परिस्थितियों के कारण आत्महत्या करना पड़ा. अगर हम निजी क्षेत्रों को तरजीह देने की बजाय उनसे ज्यादा से ज्यादा लाभ निचोड़ने की कोशिश करेंगे तो प्रायः वे फलने-फूलने से पहले ही नष्ट हो जाएंगे, फिर सुशासन की अवधारणा तो कल्पना ही रह जाएगी.
भारत में नागरिक समाज का निर्माण न हो पाने के पीछे फैबियन समाजवादी नीति रही है. जिसका कारण यह है कि यहां आयकर 28 से 30 फीसदी तक वसूला जाता है. यह तो कम है, इंदिरा गांधी सरकार में तो समाजवादी नीति के चलते अपने समय में 93 फीसदी तक आयकर लगाये थे. अगर कोई व्यक्ति 100 करोड़ कमाता है तो उसे 93 करोड़ कर के रूप में देना पड़ता था. अब सबाल यह है कि जब व्यक्ति इतना परिश्रम कर 100 करोड़ कमाकर 93 करोड़ सरकार को देगा तो व्यक्ति इतना कमाये ही क्यों ? यही कारण है कि आज देश में कर की चोरी चरमोत्कर्ष पर है.
अगर भारत अमेरिका की तरह ही सभी को 4 फीसदी कर की सीमा में बांध दे, तो निश्चित तौर पर सभी व्यक्ति खुशी के साथ कर जमा करेंगे. क्योंकि 28- 30 प्रतिशत की जगह 4 प्रतिशत कर देना सभी को मुनासिब होगा, और इसी कारण सुशासन की अवधारणा को बल भी मिलेगा. एनजीओ, एसएचजी आदि को तरजीह देना जरूरी है, लेकिन सुशासन की पूरी स्थिति प्राप्त करने के लिए निजी उद्योगों का निवेश आदि को बढ़ाने का प्रयास करना होगा.
सुशासन एक पूंजीवादी अवधारणा है. यदि सुशासन लाना है, तो सरकार के बोझ को कम करना होगा लेकिन भारत तो फैबियन समाजवादी देश है. यहां समाजवाद और पूंजीवाद दोनो का मिश्रित रूप है. यहां जनता सरकार पर निर्भर है और सरकार भी जनता के लिए हरसंभव विकास कार्य करती है, नई योजनाएं बनाती है और सब्सिडी देती है. फिर जनता से सुशासन की कल्पना कैसे की जा सकती है.
सुशासन का तो अर्थ यह है कि सरकारी कार्यों को जनता स्वयं अपना कार्य समझ कर करेगी. सुशासन के लिए प्रयास भी अनेक किए गए हैं. जैसे ई-गवर्नेंस ,डिजिटल भारत, जीएसटी आदि ये सभी सुशासन के ही प्रयास है, लेकिन बड़ी बात तो यह है कि राजनीतिक दल भी आज समाजवाद को छोड़ नहीं सके हैं. समाजवाद और सुशासन दोनों एक साथ संभव नहीं हो सकता. क्योंकि एक ओर तो राज्य सहायता छोड़ने की अपील की जाती है, तो वहीं दूसरी ओर निशुल्क विद्युत, निशुल्क गैस आदि दिया जाता है. यह निशुल्क वितरण किसी भी नागरिक समाज का प्रतीक नहीं है. अतः कहा जा सकता है कि पूंजीवादी अवधारणा पर समाजवादी प्रभाव लगातार चढ़ता जा रहा है. अतः निश्चित ही सुशासन की कल्पना साकार नहीं हो सकती है.
सुशासन नागरिक समाज पर ही किया जा सकता है, अर्थात् जो समाज सरकारी सहायता को लौटा सकता हो. जिसे छात्रवृत्ति, आरक्षण की आवश्यकता न हो तथा समाज ईमानदारी से कर चुकाता हो. सुशासन कम शासन करने वाली सरकार में ही संभव है, लेकिन आज सरकार समस्त कार्य अपने लिए ही आरक्षित कर लेती है तो ऐसी स्थिति मे सुशासन की आशा नहीं की जा सकती.
सुशासन का अर्थ अल्प शासन ही है. अतः सुशासन तभी संभव होगा जब जनता सरकारी कार्यों को स्वयं संभाल लेगी, अर्थात् सरकारी कार्यों के लिए स्वयं को तैयार कर लेगी. इसी कारण से सरकारी विभाग भी कम हो जाएंगे और भ्रष्टाचार स्वतः समाप्त हो जायेगा. लेकिन वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अभी सुशासन मात्र कल्पना ही है, क्योंकि जनता-प्रशासन संबंध ऐसे स्थापित हुए हैं, जिन्हें महान चिंतक रिग्स ने दुरभि संधि कहा है. इसी दुरभि संधि के कारण सरकारी नियमों को तोड़ना आज सहज हो गया है. अतः देश में नागरिक समाज के बनते ही सुशासन अपना स्थान ग्रहण कर लेगा.
लालजी जायसवाल
प्रयागराज,उ.प्र.