रांची: कोरोना महामारी के बावजूद इस वर्ष मां दुर्गे की आराधना देश के विभिन्न क्षेत्रों के साथ-साथ राजधानी रांची में भी की जाएगी. कोरोना संक्रमण काल में राज्य सरकार की ओर से दुर्गा पूजा को लेकर कई आवश्यक दिशा-निर्देश दिया है, जिसके तहत राजधानी रांची स्थित दुर्गा बाड़ी में भी पूजा-अर्चना को लेकर 138 साल पुरानी पर परंपरा टूटेगी.
रांची में दुर्गा पूजा का इतिहास 138 साल पुराना है. सबसे पहले श्री श्री हरी सभा और दुर्गाबाड़ी ने रांची में दुर्गा पूजा की शुरुआत की थी. पहली बार सार्वजनिक दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था. उस समय रांची जिला स्कूल के टीचर गंगाचरण वेदांत बागीश ने दुर्गा पूजा का प्रस्ताव रखा था.
इन्हीं के प्रयास से रांची की पहली दुर्गा पूजा कमेटी का गठन हुआ था. खपरैल के मकान पर पहली बार हुई थी दुर्गा पूजा. आज जहां दुर्गाबाड़ी है वहां पहले एक खपरैल का मकान हुआ करता था. उसी में दुर्गा पूजा का आयोजन पहली बार रांची में हुआ था.
उस पहली दुर्गा पूजा में पंडित गंगाचरण वेदांत ने मुख्य पुरोहित का भी दायित्व निभाया था. उसके बाद से लेकर हर साल दुर्गा पूजा का आयोजन मेन रोड स्थित दुर्गा बाड़ी में भव्य तरीके से किया जाता रहा है और उसी के साथ रांची के विभिन्न स्थानों में कोलकाता के तर्ज पर भव्य पंडालों का निर्माण होता है.
आज रांची का दुर्गा पूजा भव्यता के मामले में पश्चिम बंगाल के दुर्गा पूजा से कहीं से भी कम नहीं है .अन्य राज्यों के लोग भी प्रत्येक वर्ष यहां दुर्गा पूजा का मेला और पंडालों का अवलोकन करने पहुंचते हैं. लेकिन इस वर्ष स्थिति ,हालत ओर हालात अलग है.
पंडालों का निर्माण नहीं हो रहा है. मूर्तियां 4 फीट से अधिक साइज की स्थापित नहीं की जा रही है, सरकारी गाइडलाइन के तहत ही सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल रखते हुए पूजा का आयोजन किया जा रहा है और इसका असर पौराणिक और परंपरा का निर्वहन करने वाला दुर्गा बाड़ी के पूजा पर भी देखने को मिल रहा है. कई परंपरा में इस वर्ष बदलाव देखने को मिलेंगे.
कोरोना के कारण परंपरा में बदलावदुर्गा बाड़ी में 138 वर्षों से सामूहिक पुष्पांजलि लेने की परंपरा है, जो इस वर्ष श्रद्धालु मंदिर प्रांगण में नहीं ले पाएंगे. सबसे अहम और उत्साहित श्रद्धालु मां अंबे के विदाई के समय सिंदूर खेला के जरिए एक-दूसरे के साथ मिलते हैं.
खुशियां बांटते हैं और मां दुर्गे के साथ भी सिंदूर खेला का आयोजन होता है, लेकिन इस बार सिंदूर खेला भी दुर्गा बाड़ी में नहीं होगा. दुर्गाबाड़ी का विसर्जन भी एक आकर्षण होता है और मां के विसर्जन में हजारों श्रद्धालु कंधे में मां की डोली को उठा कर विसर्जित करने ले जाते हैं.
लेकिन यह परंपरा भी इस वर्ष दुर्गा बाड़ी में निभाया नहीं जाएगा. साथ ही मां का प्रतिमा जिस साइज का 138 वर्षों से बनवाया जाता रहा है. इस वर्ष प्रतिमा की साइज भी छोटी होगी. मात्र 4 फीट की प्रतिमा दुर्गाबाड़ी में भी स्थापित किया जाएगा.
परंपरा के तहत पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के ढाक-ढोलक बजाने वाले लोग भी प्रत्येक वर्ष दुर्गाबाड़ी पप्रतिमा की अलग खासियत दुर्गाबाड़ी की प्रतिमाओं की एक अलग खासियत होती है यहां की प्रतिमाएं एक ही नाप की होती है. इसे बंगाली कारीगर ही तैयार करते हैं यहां झालदा के जगन्नाथ लहरी ने मां की प्रतिमा पहली बार बनाई थी.
इसके बाद पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के पुरवा गांव निवासी देवेंद्र नाथ सूत्रधार ने यह जिम्मेदारी संभाली इनके बाद इनके पुत्र आनंदा सूत्रधार पौत्र तरुण सूत्रधार यहां की मूर्ति बना रहे हैं.लेकिन इस बार इस परंपरा में भी बदलाव है. प्रतिमा की साइज भी छोटी हो फाई गई.
पूजा आयोजकों का कहना है कि कुछ परंपरा में बदलाव जरूर हुआ है, लेकिन पूजा अनुष्ठान और वैदिक मंत्र उच्चारण के साथ मां दुर्गें की आराधना 9 दिनों तक लगातार दुर्गाबाड़ी में की जाएगी.
भक्तों के लिए दर्शन मंदिर में आकर करना मनाही है, लेकिन वर्चुअल तरीके से उन तक आरती, पूजा, ध्यान,अर्चना पहुंचाने की कोशिश पूजा समिति की ओर से की जा रही है. भोग वितरण नहीं होगा और न ही लोग पूजा करने मंदिर आ पाएंगे.