पूजा शकुंतला शुक्ला,
BNN DESK: कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है. चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता अवश्य ही होगी. इसका क्या कारण है?
बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फंसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता जाती रहने का डर रहता है. मानुषी प्रकृति को जागृत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है.
कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पावे. यूं कहें कि कवि संरक्षक होते हैं. वे मानव जाति के प्रथम शिक्षक हैं. आदिकाल से लेकर आज तक हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अनेक कवि हुए हैं. कोई किसी से कम नहीं.
इसी कड़ी में बीएनएन भारत झारखंड की युवा कवियित्री की कविताओं को पेश कर रहा है. कवियित्री पूजा शुकंतला शुक्ला ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है. उनकी कविताओं का मर्म सब कुछ बयां कर देता है.
सांझ के बार में उन्होंने क्या खूब लिखा है…
ख्वाहिशों की ढ़लान
जहां जमीं को चूम
जिंदगी का बीज बोते है
तुम मुझ से वहीं मिलना
दोनों देर तक बैठेंगे
बूढ़े बरगद के नीचे
और निहारेंगे उस बेल को
जो फूलों से लदी
जा लिपटी है बबूल से
ढूंढेंगे फिर अस्तित्व अपना
चुभन और कोमलता में
भरी दुपहरी धूल के कणों में
तलाशेंगे अक्स अपना
फिर भींच के आंखों में उन्हें
देखेंगे मन का आईना
हो शाम जब, सूरज तुम
हथेलियों में उतारना
मैं उसकी लाली से
लाल चुनरी रंगाऊंगी
फिर रात भर चांदनी को
हम मिल कर दुलारेंगे
जो टूटे फूटे ख़्वाब है
उनको विश्वाश की पोटली में
बंद कर शून्य हो जाएंगे
सौंधे से दो तन मन फिर
पूजा शकुंतला शुक्ला
फिर मां के मर्म को भी कविता में पिरोया है कहा है—
तुम कहती थीं
तुम्हें लता नहीं
सुदृढ़ वृक्ष बनना है
जो अपना अस्तित्व
खुद गढ़े, आकाशबेल तो
आम लड़कियां बनती है
तुम्हे सख्त जमीन पर उगना है
झंझावातों को अपनी
पत्तियों में भर कर
झूमना, मचलना है
तुम वह पौधा भी
नहीं हो सकतीं
जो किसी वृक्ष के तने पर
उग कर अपने अस्तित्व पर लगे
प्रश्नवाचक चिन्ह को
सजल नेत्रों से
निहारता रहता है
मां, जिस नाल से मैं
तुमसे जुड़ी हूं
उस नाल ने मुझे
ऐसे संस्कार दिए है
की आज मैं
अपने हिस्से की
सख्त जमीन पर
पूरे सम्मान से खड़ी हूं
मेरी जड़े मुझे
सम्मान से देखती है, और मेरे
फूल नाज करते है तुम पर