‘इस बार आने दो उसे, जला कर भष्म कर डालूंगा।’
तब जबकि अपनी माया का जाल बिछाकर गणिका तो आश्रम से सुरक्षित बाहर निकल गई, लेकिन शृंगी उसी प्रकार एक गुनगुने स्वप्र में डूबे बेसुध पड़े रहे। तभी मानो बिजली कड़की हो । विद्युत वेग से विभांड़क ने आश्रम में प्रवेश किया जहां की अस्त-व्यस्तता देख वे क्रोध से फुंफकार उठे। उस क्रोधाभिव्यक्ति से परिचित आश्रम की दीवारें थर-थर कांपने लगीं। पक्षियों ने चहचहाना बंद कर दिया। झूमते पेड़ भी जड़वत हो गये। लेकिन शृंगी बेखबर लेटे रहे।
यह देख विभांडक का गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया। झिंझोड़ कर और डपते हुए उन्होंने शृंगी को जगाया। पिता के क्रोध से उबलते चेहरे पर नजर पड़ते ही उनका नशा पल भर में उड़ गया । प्रायश्चित में सिर झुकाकर उन्होंने अपनी सम्पूर्ण आपबीती अक्षरशः बयान कर डाली। यह तक कह दिया कि वह युवक (गणिका) उन्हें लिवा ले जाने पुनः यहां आयेगा।
यह सुनते ही विभांडक की त्योरियां आड़ा-तिरछा हो गई। आश्रम को अपवित्र करने वाला वह आगन्तुक उसक्षण हत्थे चढ़ जाता तो तत्क्षण जलाकर उसे राख कर देते वह। लेकिन वह तो फिलवक्त नदी किनारे बैठकर अगली रणनीति तय करने में व्यस्त था। बहरहाल, अपना गुस्सा निगलते हुए विभांडक बुदबुदाये । ‘इस बार आने दो उसे, जला कर भष्म कर डालूंगा।’ पिताश्री की क्रोध से जलती आंखें और गुस्से से तमतमाये चेहरे देख शृंगी किसी भावी आशंका से सिहर उठे। वह नहीं चाहते थे कि जिसे उन्होंने मित्र रूप में स्वीकार किया हो, वह क्रोधाग्नि की भेट चढ़ जाय। लेकिन वह बेबस थे। चाहकर भी वह उस अपरिचित मित्र की मदद नहीं कर सकते थे, क्योंकि अब तो पिता की उपस्थिति में आश्रम से बाहर निकलना मुश्किल था, और दूसरे यह कि उसका पता ठिकाना भी उन्हें ज्ञात नहीं था। लेकिन आश्रम की निगरानी कर रहे गुप्तचरों ने उसी क्षण गणिका को विभांडक के एलान से वाकिफ करा दिया, जिसके मद्देनजर उसने आश्रम जाने का अपना इरादा फिलहाल टाल दिया। दिन, हफ्ता और महीना गुजर गया। इंतजार की घड़ियां लगातार लम्बी ही होती चली जा रही थीं। विभांडक को यकीन हो गया कि अब वह दोबारा आश्रम में नहीं आएगा। इसी बीच उनका चढ़ता क्रोध भी नर्म पड़ चुका था। लिहाजा अपनी दिनचर्या शुरू करने का उन्होंने फिर से निर्णय ले लिया। पूर्व की भांति एक दिन वह पुनः पहाड़ से नीचे उतर आए। गुप्तचरों ने तुरंत यह सूचना गणिका को पहुंचा दी। वह तो इस घड़ी की प्रतीक्षा ही कर रही थी। बिना वक्त गंवाये वह आश्रम की ओर चल पड़ी। उस वक्त शृंगी साधना में लीन थे। लेकिन उस चिर-परिचित आहट ने उनकी तंद्रा भंग कर दी। आश्रम में गणिका के कदम रखते ही वातावरण एक बार फिर से बसंताच्छादित हो उठा। शृंगी का रोम रोम पुलकित हो उठा।
क्रमशः…