जब मालिनी थी तब भी और मालिनी जब चम्पा बन गयी तब भी, चम्पा जब चम्पापुरी कहलाने लगी तब भी और जब चौपाई नगर के रूप में नामित हुई तब भी, यह चम्पा नदी अपने इसी नाम के साथ अविरल प्रवाहित होती रही। नाला तो यह तब बनी, जब इस माटी ने चम्पानगर नाम धारण कर लिया।
यानी युगों तक राजधानी के रूप में सुशोभित और चर्चित इस शहर ने जैसे ही चम्पानगर के रूप में एक गांव की सी शक्ल अख्तियारा, नदी की मचलती जवानी भी झटके में ही बुढ़ापे के आगोश में समा गयी। अब तो बस यह जल और जीवन के मान्य फलसफे का एक प्रतीक भर रह गयी है। तो क्या मालिनी का चम्पानगर के रूप में एक गांव बन जाना और एक उफनती नदी का गंदे नाले में तब्दील हो जाना प्रत्यक्ष रिश्ते में बंधा है? अतीत की चीर-फाड़ से स्पष्ट है कि जब तक चम्पा नदी के आगोश में उफान रहा, चम्पा (नगर) की हैसियत भी वजनदार बनी रही, लेकिन जैसे ही नदी ने अपनी जवानी खोई, नगर का सौन्दर्य और उसका ऐश्वर्य सब कुछ झटके में ही चकनाचूर हो गया। विडम्बना यह है कि नदी की इस लूट गयी जवानी पर कोई मुंह खोलने तक को तैयार नहीं है। वर्तमान गलतफहमी का शिकार है कि चम्पा जवान रहे या बूढ़ी, उसकी अपनी सेहत दुरुस्त रहनी चाहिए। इस
लेकिन नहीं, फर्क पड़ता है। फर्क पड़ भी रहा है। इसकी वजह यह है कि अतीत को दरनजर कर वर्तमान का साजो श्रृंगार नहीं किया जा सकता। जिस नदी के साथ महासती बिहुला बनाम मनसा विषहरी की हैरतनाक कहानी जुड़ी है और मैली हो जाने के बावजूद जिस नदी के तट पर आज भी कहीं शिव शंकर ( बमभोकरा स्थान ) विराजमान मिलते हों, कहीं राधा कृष्ण झूला झूलते हों (पुरानी) ठाकुरबाड़ी) और कहीं मखदुम शाह की मजार पर मुस्लिम समुदाय अपनी धार्मिक आस्था व्यक्त करते हों, निश्चित ही इसकी धारा में कुछ वैसी तासीर जरूर भी कि चीखती घटनाएं यहां एक के बाद एक पेश आती रहीं और इतिहास बन जाने के बावजूद जिनकी अंगड़ाईयां आज भी चम्पा के बिस्तरे पर उभरी सिलवटों में देखी जा सकती हैं। लेकिन आधुनिकता की दौड़ लगाने में व्यस्त मौजूदा पीढ़ी को चम्पा की सिसकियों से क्या लेना-देना? उसकी जुबान चम्पा नाला कहते जरा भी नहीं हिचकती, जबकि शहर की तमाम प्रतिमाएं आज भी इसी नदी (नाला) में विसर्जित होती हैं।
यही नहीं, जिस बिहुला-विषहरी की कथा की कभी प्रत्यक्ष साक्षी रही थी। यह नदी, आज भी विषहरी भक्त इसी मैले जल में डुबकियां लगाकर अपना धार्मिक कर्मकांड पूर्ण करते हैं और मंजूषा तथा कलश-विजर्सन कर धन्य होते हैं। हो सकता है कि यह महज एक अंधविश्वास हो, मगर सैकड़ों सालों से चली आ रही इस प्राचीन परम्परा के बेरोकटोक निर्वाह से आस्था की पुष्टि तो होती ही है ।
क्रमशः…