विक्रमशिला के महाविहार की स्थापना नरेश धर्मपाल (775-800ई.) ने करवायी थी। उसने यहां मंदिर तथा मठ बनवाये और उन्हें उदारतापूर्वक अनुदान दिया। एक मान्यता यह है कि महाविहार के संस्थापक राजा धर्मपाल को मिली उपाधि ‘विक्रमशील’ के कारण संभवतः इसका नाम विक्रमशिला पड़ा।
बिहार प्रांत के भागपलुर जिले में स्थित विक्रमशिला नालंदा के ही समान एक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति का शिक्षा केन्द्र रहा है। इसकी स्थिति भागलपुर से 24 मील पूर्व की ओर पथरघाट नामक पहाङी पर बतायी गयी है, जहां से प्राचीन काल के विस्तृत खंडहर प्राप्त होते हैं।
यहाँ 160 विहार तथा व्याख्यान के लिये अनेक कक्ष बने हुये थे। धर्मपाल के उत्तराधिकारी तेरहवीं शती तक इसे राजकीय संरक्षण प्रदान करते रहे। परिणामस्वरूप विक्रमशिला लगभग चार शताब्दियों से भी अधिक समय तक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय बना रहा।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय में छः महाविद्यालय थे। प्रत्येक में एक केन्द्रीय कक्ष तथा 108 अध्यापक थे। केन्द्रीय कक्ष को विज्ञान भवन कहा जाता था। प्रत्येक महाविद्यालय में एक प्रवेश द्वार होता था, तथा प्रत्येक प्रवेश द्वार पर एक-एक द्वारपंडित बैठता था। द्वारपंडित द्वारा परीक्षण किये जाने के बाद ही किसी विद्यार्थी का महाविद्यालय में प्रवेश संभव था।
कनक के शासनकाल में निम्नलिखित द्वारपंडितों के नाम हमें मिलते हैं –
पूर्व द्वार – आचार्य रत्नाकर शांति
पश्चिम द्वार – वागीश्वर कीर्ति (वाराणसेय)
उत्तर द्वार – नरोप
दक्षिण द्वार – प्रज्ञाकरमति
प्रथम केन्द्रीय द्वार – रत्नवज्र (कश्मीरी)
द्वितीय केन्द्रीय द्वार – ज्ञानश्रीमित्र (गौडीय)
विश्वविद्यालय में अध्ययन के विशेष विषय व्याकरण, तर्कशास्त्र, मीमांसा, तंत्र, विधिवाद आदि थे। इस प्रकार यहां का पाठ्यक्रम नालंदा के समान विस्तृत नहीं था।
आचार्यों में दीपंकर श्रीज्ञान का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है, जो इस विश्वविद्यालय के कुलपति थे। वे हीनयान, महायान, वैशेषिक, तर्कशास्त्र के विद्वान और तिब्बती बौद्ध धर्म के महान लेखक थे। ग्यारहवी शती में तिब्बती नरेश चनचुब के नियंत्रण पर वे तिब्बत गये जहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म के सुधार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। तिब्बती स्त्रोतों में उन्हें दो सौ ग्रंथों की रचना का श्रेय प्रदान किया गया है।
बारहवीं शती में अभयांकर गुप्त यहाँ के आचार्य थे। वे तंत्रवाद के महापंडित थे। तिब्बती तथा संस्कृत में उन्होंने कई ग्रंथ लिखे।
अन्य विद्वानों में ज्ञानपाद, वैरोचन, रक्षित, जेतारी, रत्नाकर, शांति, ज्ञानश्री, मित्र, रत्नवज्र, तथागत, रक्षित आदि के नाम प्रसिद्ध हैं।
बारहवीं शती में तीन हजार विद्यार्थी यहां शिक्षण ग्रहण करने आते थे। इनमें अधिकांश तिब्बत के थे। तिब्बती छात्रों के आवास के लिये विश्वविद्यालय में एक विशिष्ट अतिथिगृह बनवाया गया था।
यहाँ एक सम्पन्न तथा विशालकाय पुस्तकालय भी था। विश्वविद्यालय का प्रबंध चलाने के लिये मुख्य संघाध्यक्ष की देख-रेख में एक परिषद थी, जिसके सदस्य विभिन्न प्रशासनिक कार्यों जैसे नवागन्तुकों को दीक्षित करने, नौकरों की व्यवस्था तथा उनकी देखभाल, खाद्य सामग्री तथा ईंधन की आपूर्ति, मठ के कार्यों का आवंटन आदि, को सम्पन्न किया करते थे।
शैक्षणिक व्यवस्था छः द्वारपंडितों की समीति द्वारा ही संचालित होती थी। इस समिति का भी एक अध्यक्ष होता था। कालांतर में विक्रमशिला विश्वविद्यालय की प्रशासनिक परिषद ही नालंदा विश्वविद्यालय के कार्यों की देख-रेख करने के लिये विक्रमशिला के आचार्यों को नियुक्त किया करते थे।
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विक्रमशिला विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम की अवधि के विषय में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं होती है। मात्र यह पता चलता है, कि यहाँ के स्नातकों को अध्ययनोपरांत पाल शासकों द्वारा उपाधियाँ प्रदान की जाती थी। संभव है वहाँ आजकल की भाँति दीक्षान्त समारोहों का आयोजन भी किया जाता था। जिसमें समकालीन पाल शासक कुलाधिपति की हैसियत से उपस्थित होते थे।
तिब्बती स्त्रोतों से पता चलता है, कि जेतारी तथा रत्नवज्र ने पाल राजाओं – महीपाल तथा कनक के हाथों से उपाधियाँ प्राप्त की थी। स्नातकों को पंडित की उपाधि दी जाती थी। महापंडित, उपाध्याय, आचार्य क्रमशः उच्चतर उपाधियाँ थी।
इस प्रकार विक्रमशिला ग्यारहवीं-बारहवीं शती में भारत का सर्वाधिक सम्पन्न, सुसंगठित तथा प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय था। नालंदा के ही समान इस विश्वविद्यालय का मुख्य कार्य तिब्बत में भारतीय सभ्यता का प्रचार-प्रसार करना था।
1203 ई. में मुस्लिम आक्रांता बख्तियार खिलजी ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय को दुर्ग के भ्रम में विध्वस्त कर दिया। भिक्षुओं की सामूहिक हत्या कर दी गयी तथा ग्रंथों को जला दिया गया। इस समय विश्वविद्यालय के कुलपति शाक्यश्रीभद्र थे। वे अपने कुछ अनुयायियों के साथ किसी प्रकार बच कर तिब्बत भाग गये। इस प्रकार गौरवशाली शिक्षण संस्थान का अंत दुखद रहा।