BnnBharat: हालिया परिदृश्य में डीप सी माइनिंग बहुत चर्चे मे रहा है। क्या है डीप सी माइनिंग? भारत और विश्व पर क्या पड़ेगा असर। आइए जानते हैं सबकुछ इस बारे में।
डीप सी माइनिंग (गहरे समुद्र में खनन) से तात्पर्य 200 मीटर से नीचे गहरे समुद्र तल से खनिज निकालने की प्रक्रिया से है, जो कुल समुद्री तल के दो-तिहाई हिस्से को कवर करता है। खनिज अन्वेषण का पता लगाने हेतु 1.5 मिलियन वर्ग किलोमीटर से अधिक अंतर्राष्ट्रीय समुद्र तल को अलग रखा गया है।
गहरे समुद्र में खनिज संसाधनों से संबंधित सभी गतिविधियों की निगरानी के लिये सामुद्रिक कानून पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNCLOS) के तहत एक एजेंसी इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (ISA) के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय सीबेड वह क्षेत्र है जो राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र की सीमा से बाहर है और विश्व के महासागरों के कुल क्षेत्र का लगभग 50% प्रतिनिधित्त्व करता है। ISA ने गहरे समुद्र में खनिज भंडार का पता लगाने के लिये 32 अनुबंध किये हैं।
ISA (International Seabed Authority) अंतर्राष्ट्रीय समुद्री प्राधिकरण
अंतर्राष्ट्रीय समुद्री प्राधिकरण (International Seabed Authority), संयुक्त राष्ट्र संघ का एक निकाय है। इस निकाय को अंतर्राष्ट्रीय जल में महासागरों के समुद्रों में पाए जाने वाले निर्जीव संसाधनों के संबंध में अन्वेषण तथा शोषण आदि कार्यों को विनियमित करने के लिये स्थापित किया गया है। जिसकी स्थापना 1982 में समुद्र के कानून पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (यूएनसीएलओएस) और 1994 में समुद्र के कानून पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के भाग XI के कार्यान्वयन से संबंधित समझौते के तहत की गई थी। (1994 समझौता)।
आईएसए वह संगठन है जिसके माध्यम से यूएनसीएलओएस के सदस्य देश समग्र रूप से मानव जाति के लाभ के लिए क्षेत्र में सभी खनिज-संसाधन-संबंधित गतिविधियों का आयोजन और नियंत्रण करते हैं। ऐसा करने में, आईएसए को गहरे समुद्र से संबंधित गतिविधियों से उत्पन्न होने वाले हानिकारक प्रभावों से समुद्री पर्यावरण की प्रभावी सुरक्षा सुनिश्चित करने का अधिकार है।
आईएसए, जिसका मुख्यालय किंग्स्टन, जमैका में है, यूएनसीएलओएस के लागू होने पर 16 नवंबर 1994 को अस्तित्व में आया। यह जून 1996 में एक स्वायत्त अंतर्राष्ट्रीय संगठन के रूप में पूरी तरह से चालू हो गया, जब इसने किंग्स्टन, जमैका में परिसर और सुविधाओं को अपने कब्जे में ले लिया, जो पहले समुद्र के कानून के लिए संयुक्त राष्ट्र किंग्स्टन कार्यालय द्वारा उपयोग किया जाता था।
यूएनसीएलओएस के अनुच्छेद 156(2) के अनुसार, यूएनसीएलओएस के सभी सदस्य देश वास्तव में आईएसए के सदस्य हैं। 18 मई 2023 तक, ISA के 169 सदस्य हैं , जिनमें 168 सदस्य देश और यूरोपीय संघ शामिल हैं।
यह क्षेत्र और इसके संसाधन मानव जाति की साझी विरासत हैं। यह क्षेत्र विश्व के महासागरों के कुल क्षेत्रफल का लगभग 54 प्रतिशत भाग कवर करता है।
भारत सरकार ने 2021 में ‘डीप ओशन मिशन’ को मंजूरी दी
भारत, अंतर्राष्ट्रीय समुद्री प्राधिकरण के काम में सक्रिय रूप से योगदान देता है। वर्ष 2016 में भारत को आई.एस.ए. की परिषद के सदस्य के रूप में पुनः निर्वाचित किया गया।
भारत सरकार ने 2021 में ‘डीप ओशन मिशन’ को मंजूरी दी। इसका उद्देश्य समुद्री संसाधनों का पता लगाना और गहरे समंदर में काम करने की तकनीक विकसित करना है। साथ ब्लू इकोनॉमी को तेजी से बढ़ावा देना भी इसका एक उद्देश्य है। ब्लू इकोनॉमी एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो पूरी तरह से समुद्री संसाधनों पर आधारित है।
वहीं, स्वीडन, आयरलैंड, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, न्यूजीलैंड, कोस्टा रिका, चिली, पनामा, पलाऊ, फिजी और माइक्रोनेशिया जैसे देश डीप सी माइनिंग पर बैन लगाने की मांग कर रहे हैं।
वर्ष 1987 में भारत अग्रणी निवेशक का दर्ज़ा प्राप्त करने वाला पहला देश
वर्ष 1987 में भारत अग्रणी निवेशक का दर्ज़ा प्राप्त करने वाला ऐसा पहला देश है, जिसे पॉलीमेटैलिक ग्रंथियों के संबंध में अन्वेषण एवं उनके उपयोग के लिये यू.एन. द्वारा केंद्रीय भारतीय महासागरीय बेसिन में एक विशेष क्षेत्र आवंटित किया गया।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (Ministry of Earth Sciences) के माध्यम से पॉलीमेटैलिक ग्रंथियों के संबंध में अन्वेषण एवं उपयोग पर एक दीर्घकालिक कार्यक्रम का संचालन करने वाले शीर्ष 8 देशों में से भारत एक है।
इस दीर्घकालिक कार्यक्रम के अंतर्गत पॉलीमेटैलिक ग्रंथियों के संबंध में सर्वेक्षण एवं अन्वेषण, पर्यावरणीय अध्ययन, खनन क्षेत्र में तकनीकी विकास तथा धातु निष्कर्षण जैसे क्षेत्रों को शामिल किया गया है। इतना ही नहीं इन क्षेत्रों में कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ भी हासिल की गई हैं।
भारत वर्ष 1987 में ‘पायनियर इन्वेस्टर’ का दर्जा प्राप्त करने वाला पहला देश था और नोड्यूल की खोज के लिये भारत को मध्य हिंद महासागर बेसिन (CIOB) में लगभग 5 लाख वर्ग किमी. के क्षेत्र पर अनुमति प्रदान की गई थी। मध्य हिंद महासागर बेसिन में समुद्र तल से पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स की खोज करने के लिये भारत के विशेष अधिकारों को वर्ष 2017 में पाँच वर्षों के लिये बढ़ा दिया गया था। अत:
दुर्लभ मृदा खनिज अंतर्राष्ट्रीय जल में समुद्र तल पर पाए जाते हैं। विभिन्न महासागरों के समुद्र तल में दुर्लभ-पृथ्वी खनिजों का दुनिया का सबसे बड़ा अप्रयुक्त संग्रह है।
पॉलीमेटैलिक ग्रंथियाँ क्या है?
पॉलीमेटैलिक ग्रंथियाँ (जिसे मैंगनीज़ ग्रंथियाँ भी कहा जाता है) आलू के आकार की होती हैं, इनमें बड़े पैमाने पर छिद्रपूर्ण नलिकाएँ पाई जाती हैं।
ये गहरे समुद्र में विश्व महासागरों के समुद्र तलों की ढलानों पर पाई जाती हैं।
मैंगनीज़ और लोहे के अलावा, इनमें निकिल, तांबा, कोबाल्ट, सीसा, मोलिब्डेनम, कैडमियम, वैनेडियम, टाइटेनियम आदि धातुएँ पाई जाती हैं। इन सभी में निकिल, कोबाल्ट और तांबे को सबसे अधिक आर्थिक एवं सामरिक महत्त्व की धातुएँ माना जाता है।
पॉलीमेटैलिक ग्रंथियों संबंधी विकास गतिविधियों हेतु भारत को अंतर्राष्ट्रीय जल के तकरीबन 75000 वर्ग किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्र में विशिष्ट अधिकार प्राप्त है। ये सभी अधिकार इसे आई.एस.ए. द्वारा प्रदान किये गए हैं।
एक अनुमान के अनुसार, पॉलीमैटेलिक ग्रंथि संसाधनों की कुल क्षमता 380 मिलियन टन के करीब है, जिसमें 4.7 मिलियन टन निकिल, 4.29 मिलियन टन तांबा और 0.55 मिलियन टन कोबाल्ट तथा 92.59 मिलियन टन मैंगनीज़ के होने की संभावना जताई गई है।
केंद्रीय भारतीय महासागरीय बेसिन (Central Indian Ocean Basin – CIOB) के समुद्र तट में पॉलीमेटैलिक ग्रंथियों (polymetallic nodules) का पता लगाने संबंधी भारत के विशेषाधिकार को पाँच साल के लिये बढ़ा दिया गया है। आई.एस.ए. (International Seabed Authority – ISA) के 23वें सत्र में सर्वसम्मति से यह अनुमोदित किया गया। इस सत्र का आयोजन 18 अगस्त, 2017 को किंग्स्टन, जमैका में किया गया था।
भारत का डीप ओशन मिशन
डीप ओशन मिशन गहरे समुद्र तल में खनिजों की खोज और निष्कर्षण के लिये आवश्यक प्रौद्योगिकियों को विकसित करना चाहता है।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) इस बहु-संस्थागत महत्त्वाकांक्षी मिशन को लागू करने वाला नोडल मंत्रालय होगा।
यह एक मानवयुक्त पनडुब्बी (मत्स्य 6000) विकसित करेगा जो वैज्ञानिक सेंसर और उपकरणों के साथ समुद्र में 6,000 मीटर की गहराई तक तीन लोगों को ले जा सकती है।
यह “गहरे समुद्र की वनस्पतियों और जीवों के जैव-पूर्वेक्षण एवं गहरे समुद्र के जैव-संसाधनों के सतत् उपयोग पर अध्ययन” के माध्यम से गहरे समुद्र की जैवविविधता की खोज तथा संरक्षण हेतु तकनीकी नवाचारों को आगे बढ़ाएगा।
मिशन अपतटीय महासागर थर्मल ऊर्जा रूपांतरण (Offshore Ocean Thermal Energy Conversion- OTEC) संचालित अलवणीकरण संयंत्रों के अध्ययन और विस्तृत इंजीनियरिंग डिज़ाइन के माध्यम से समुद्र से ऊर्जा एवं मीठे जल प्राप्त करने की संभावनाओं का पता लगाने का प्रयास करेगा।
अन्य ब्लू इकॉनमी पहल
सतत् विकास हेतु ब्लू इकॉनमी पर भारत-नॉर्वे टास्क फोर्स
सागरमाला परियोजना
ओ-स्मार्ट
एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन
राष्ट्रीय मत्स्य नीति
रिमोटली ऑपरेबल सब्मेरिसिबल
इस कार्य हेतु 6000 मीटर पानी की गहराई पर काम करने में सक्षम एक दूरस्थ ऑपरेबल पनडुब्बी (Remotely Operable Submersible – ROSUB 6000) भी विकसित की गई है।
इतना ही नहीं, इसका 5289 मीटर की गहराई में सफलतापूर्वक परीक्षण भी किया जा चुका है।
केंद्रीय भारतीय महासागरीय बेसिन में खनन क्षेत्र के संबंध में विस्तृत भू-तकनीकी जानकारियों को प्राप्त करने तथा 5462 मीटर पानी की गहराई में सफलतापूर्वक परीक्षण करने के लिये ही इस स्व:स्थाने मृदा परीक्षण उपकरण (in-situ soil testing equipment) वाले उपकरण को विकसित किया गया।
क्षेत्रीय सहयोग के लिये हिंद महासागर रिम संघ (IOR-ARC) हिंद महासागर में रिम (Rim) देशों की एक क्षेत्रीय सहयोग पहल, जिसे मार्च 1997 में मॉरीशस में इसके सदस्यों के मध्य आर्थिक और तकनीकी सहयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था।
IOR-ARC एकमात्र अखिल भारतीय महासागर समूह है। इसमें 23 सदस्य देश और 9 डायलॉग पार्टनर हैं।
इसका उद्देश्य हिंद महासागर रिम क्षेत्र में व्यापार, सामाजिक-आर्थिक तथा सांस्कृतिक सहयोग के लिये एक मंच उपलब्ध कराना है, जो लगभग दो अरब लोगों की जनसंख्या का प्रतिनिधित्त्व करता है।
हिंद महासागर रिम सामरिक और कीमती खनिजों, धातुओं एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों, समुद्री संसाधनों तथा ऊर्जा से समृद्ध है, जो सभी विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों (EEZ), महाद्वीपीय समतल और गहरे समुद्री तल से प्राप्त किये जा सकते हैं।
मोबाइल-लैपटॉप के लिए समुद्र से निकल-कोबाल्ट निकाले जाएंगे:समुद्र तल के दो तिहाई हिस्से में महंगी धातुएं
फुटेज यूरोप के ऑलसीज ग्रुप की शिप की है। साइंटिस्ट्स का कहना है कि इन मशीनों से वेस्ट वॉटर के साथ निकलने वाला कचरा पानी को दूषित कर रहा है।
मोबाइल-लैपटॉप जैसी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस बनाने के लिए अब समुद्र तल से कोबाल्ट, निकल और सल्फाइड जैसी धातुएं और खनिज निकालने की तैयारी की जा रही है। इस प्रोसेस को डीप सी माइनिंग कहा जाता है। इस प्रपोजल से दुनियाभर के एनवायरनमेंट रिसर्चर्स और साइंटिस्ट्स की परेशानियां बढ़ गई हैं।
वैज्ञानिकों के मुताबिक डीप सी कमर्शियल माइनिंग से मरीन लाइफ, बायोडायवर्सिटी (जैव विविधता) और इकोसिस्टम (पारिस्थितिक तंत्र) को गंभीर खतरा है। दरअसल इन खनिज-धातुएं का भंडार घट रहा है। जबकि स्मार्टफोन, विंड टर्बाइन, सौलर पैनल और बैटरी के उत्पादन के लिए इनकी मांग बढ़ रही है। ये खनिज और धातुएं कुल समुद्र तल के दो-तिहाई हिस्से को कवर करती हैं।
स्थलीय निक्षेपों का क्षरण: तांबा, निकल, एल्युमीनियम, मैंगनीज़, जस्ता, लिथियम और कोबाल्ट जैसी धातुओं के घटते भंडार के कारण गहरे समुद्र के निक्षेपों की ओर ध्यान केंद्रित हुआ।
खनिज संसाधन गहरे प्रशांत और हिंद महासागर सहित विभिन्न गहरे महासागरीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स से निकाले जाते हैं।
नोड्यूल लगभग आलू के आकार के होते हैं और क्लैरियन-क्लिपर्टन ज़ोन (CCZ) में वितलीय मैदानों में तलछट की सतह पर पाए जाते हैं, जो मध्य प्रशांत महासागर में 4,000 – 5,500 मीटर की गहराई पर 5,000 किलोमीटर (3,100 मील) तक फैला क्षेत्र है।
बढ़ती मांग: स्मार्टफोन, पवन टर्बाइन, सौर पैनल और बैटरी का उत्पादन करने के लिये इन धातुओं की मांग भी बढ़ रही है।
वैज्ञानिकों ने डीप सी माइनिंग को लेकर जो चिंताएं जताई हैं
1. इससे पानी दूषित होगा, जो समुद्री जीवों को नुकसान पहुंचाएगा
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) के मुताबिक, डिप सी कमर्शियल माइनिंग के जरिए 200 मीटर (660 फीट) से 6,500 मीटर (21,300 फीट) की गहराई तक पाए जाने वाले खनिजों-धातुओं के निकाला जाता है।
समुद्र की इस गहराई में जीवों की एक अलग ही दुनिया बसी हुई है। इस दुनिया यानी मरीन लाइफ को खनन से बचाने की जरूरत है। क्योंकि खनन से नॉइस पॉल्यूशन होता है। पानी भी दूषित होता है। इससे जीवों को परेशानी हो सकती है। वहीं, खनन में इस्तेमाल होने वाली मशीनें भी जीवों को नुकसान पहुंचा सकती हैं या उन्हें मार सकती हैं।
2. जहां माइनिंग हुई, वहां फूड चेन पर असर पड़ा
2020 में जापान की सरकार ने नॉर्थ-वेस्ट पैसिफिक ओशन में खनन किया था। इसके प्रभावों की जांच में सामने आया कि जहां खनन हुआ उसके 43% इलाके में मछलियों और जीवों ने आना-जाना बंद कर दिया। साइंटिस्ट्स के मुताबिक, इस इलाके में माइनिंग और सेडिमेंट पॉल्यूशन के चलते फूड सप्लाई प्रभावित हुई, जिसके कारण जीवों ने यहां आना कम कर दिया।
अब इससे एक और समस्या पैदा हो गई। साइंटिस्ट्स का मानना है कि माइनिंग और क्लाइमेट चेंज की वजह से मछलियां और अन्य जीव हवाई और मेक्सिको के बीच फैले ईस्टर्न पैसिफिक ओशन क्लेरियन-क्लिपरटन जोन की तरफ जाने लगेंगे। ये इलाका 4.5 मिलियन स्क्वेयर किलोमीटर में फैला है। माइनिंग के लिहाजे से ये इलाका सबसे अहम है। यहां पर जब खनन किया जाएगा तो पानी दूषित होगा जिसका असर सीधे मछलियों के गिल्स पर होगा। मछलियां गिल्स से सांस लेती हैं। ऐसे में खनन के चलते उनकी मौत हो जाएगी।
3. समुद्र तल में खनन का असर क्लाइमेट पर भी पड़ेगा
साइंटिस्ट्स का कहना है कि समुद्र तल जैव विविधिता का खजाना है। सी-बेड पर दवाओं में इस्तेमाल होने वाले जीवित संसाधनों के भंडार भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं। लेकिन समुद्र तल में मौजूद जैव विविधता के खजाने से छेड़छाड़ हुई तो धरती जैसी है वैसी नहीं रह पाएगी। इससे ना सिर्फ समुद्र के अंदर बल्कि मैदानी इलाकों के क्लाइमेट पर बुरा असर पड़ेगा।
वाणिज्यिक पैमाने पर खनन दिन में 24 घंटे संचालित रहने की संभावना है, जिससे ध्वनि प्रदूषण होता है।
यह उन आवृत्तियों के साथ ओवरलैप कर सकता है जिन पर सेटेशियन संचार करते हैं, जो समुद्री स्तनधारियों में श्रवण प्रच्छादन और व्यवहार परिवर्तन का कारण बन सकता है।
खनन वाहनों द्वारा उत्पन्न तलछट का निपटान आसपास के क्षेत्र में समुद्र के तल में प्रजातियों (बेथेंटिक प्रजाति) को क्षति पहुँचा सकता है/मार सकता है।
प्रसंस्करण वाहिकाओं से निकलने वाले तलछट भी जल के स्तंभ में मैलापन बढ़ा सकते हैं। इसके अलावा दृष्टि से दूर प्रभाव काफी हद तक अनिश्चित हो सकते हैं।
डीप सी माइनिंग के समर्थक बोले- ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने में मदद मिलेगी
डीप सी कमर्शियल माइनिंग को लेकर वैज्ञानिकों ने चिंता जताई है, लेकिन इसका समर्थन करने वाले कहते हैं कि इससे ग्लोबल वॉर्मिंग से लड़ने में मदद मिलेगी। दुनियाभर की कई कंपनियों और लोगों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के लिए ई-वाहनों और उनके लिए बैटरियों की मांग में तेजी हो रही है। वहीं, इनको बनाने में इस्तेमाल होने वाले संसाधन दुनियाभर में कम होते जा रहे हैं।
समुद्र की गहराई में पाया जाने वाला लिथियम, तांबा और निकल बैटरी में इस्तेमाल होते हैं। वहीं, इलेक्ट्रिक कारों के लिए जरूरी कोबाल्ट और स्टील इंडस्ट्री के लिए जरूरी मैगनीज भी समुद्र की गहराई में उपलब्ध है।
तस्वीर यूरोप के ऑलसीज ग्रुप की शिप की है। पिछले कुछ साल में जापान, चीन, कोरिया, यूरोप और भारत ने कीमती धातुओं की बढ़ती मांग को लेकर नए स्रोतों की तलाश शुरू की है।
तस्वीर यूरोप के ऑलसीज ग्रुप की शिप की है। पिछले कुछ साल में जापान, चीन, कोरिया, यूरोप और भारत ने कीमती धातुओं की बढ़ती मांग को लेकर नए स्रोतों की तलाश शुरू की है।
अनुमानों के मुताबिक, तीन साल में दुनिया को दोगुने लिथियम और 70% ज्यादा कोबाल्ट की जरूरत होगी। वहीं, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि 2030 तक करीब पांच गुना ज्यादा लिथियम और चार गुना ज्यादा कोबाल्ट की जरूरत होगी। इन रॉ-मटेरियल का उत्पादन मांग से काफी कम हो रहा है। इस अंतर को बैलेंस करने के लिए समुद्र की गहराई में खुदाई को विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है।
UN से जुड़ी इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (ISA) ने इंटरनेशनल वॉटर्स में कमर्शियल माइनिंग को लेकर चर्चा की है।
सिर्फ रिसर्च के लिए 14 देशों को डीप सी एक्सप्लोर करने की इजाजत
UN से जुड़ी इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (ISA) ने सिर्फ रिसर्च के लिए 14 देशों को डीप सी को एक्सप्लोर करने की मंजूरी दी है। इन देशों में चीन, रूस, दक्षिण कोरिया, भारत, ब्रिटेन, फ्रांस, पोलैंड, ब्राजील, जापान, जमैका, नाउरू, टोंगा, किरिबाती और बेल्जियम शामिल हैं।