राहुल मेहता,
रांची: निर्भया मामले में अभी भी निर्णय का इंतजार है. रांची के निर्भया के आरोपी को फांसी का सजा सुना दिया गया है. क्या अब फिर इंतजार और इंतजार? अब तो आक्रोश का उबाल शांत हो गया. लोग सड़कों से भी गायब हो गये हैं. अखबार के पन्ने अवश्य प्रतिदिन दुष्कर्म के घटनाओं से परिपूर्ण होते हैं.
कल मैं एक दुकान में था. एक बच्चे ने पूछा ’गैंग रेप’ क्या होता है? उसके दोस्त ने मासूमियत से जवाब दिया- बुद्धु इतना भी नहीं जानता, गैंग-मतलब सामूहिक एवं रेप मतलब किसी की बेइज्जती करना. आश्चर्यजनक था पिता का प्रतिक्रिया. अधिकतर समय अभिभावक ऐसे सवालां पर टाल-मटोल कर जवाब नहीं देते.
किसी चीज को छिपाने से जिज्ञासा जन्म लेती है और हम उसके बारे में और ज्यादा जानने का प्रयास करते हैं. अधिकतर समय गलत श्रोतों से अधकचरा ज्ञान अर्जित करते हैं. यह अधकचरा ज्ञान मनोविकृति को जन्म देती है.
अतः सेक्स एवं उससे जुड़ी बातों पर पाबंदी लगाने के बजाये हमें अपनी उर्जा सही जानकारी, मर्यादा, संस्कार, मूल्यबोध विकसित करने में लगाना चाहिये, क्योंकि ब्रेक से गाड़ी रूकती है चांद नहीं. उस पिता ने यही प्रयास किया.
अगर मनोविज्ञान की बात करें तो लैंगिक मनोविकृति या असंतुष्टि का बीज जीवन के तीसरे वर्ष में ही जाने-अनजाने जन्म लेता है. क्या हम इसके बारे में जानते हैं? जानता चाहते हैं? मनोविकृति का बीज न पड़े यह प्रयास करना चाहते हैं? मनोविकृति के बीज को अंकुरित होने के लिये उचित वातावरण न मिले यह प्रयास करना चाहते हैं? नहीं, नहीं, और नहीं. हमारा प्रयास सिर्फ मनोविकृति को कुचलना होता है.
अगर मनोविकृति को कुचलने की ही बात हो तो हमारा प्रयास भावनात्मक, आवेशयुक्त न होकर तार्किक होना चाहिए. हमारे देश में विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया व समाज की अपनी जबाबदेही है, चरित्र है.
इनके चरित्र से हम सभी वाकिफ है. दुष्कर्म एक समाजिक-मनोवैज्ञानिक मुद्दा है. हमारा समाज भी दुष्कर्म की पीड़िता को बुरा मानता है. गंदा मानता है, अपवित्र समझता है जबकि दुष्कर्मी कहीं-कहीं ताकतवर माना जाता है. उसके इज्जत में अधिकतर समय कोई आंच नहीं आती.
दुष्कर्मी के खिलाफ त्वरित एवं सख्त कार्यवाही आवश्यक है, परन्तु इस सामाजिक समीकरण (मानसिकता) में बदलाव के बिना दुष्कर्म के मामले थाना तक आसानी से नहीं आयेंगे. थाना एवं कानून की सक्रियता यदि पीड़ित परिवार का विश्वास बढ़ाती है तो यह दुष्कर्मी के मन में खौफ भी पैदा करती है पर यह तात्कालिक उपाय है.
हम पुलिस को तो घेरे में लेते हैं पर न्यायपालिका पर मौन रहते हैं. अनेक मामले में न्याय में विलंब खौफ, आक्रोश पर पानी डाल दुराचारियों का हौसला बढ़ा रही हैं. दुष्कर्मी के सामाजिक स्वीकृति पर भी चर्चा के साथ न्याय प्रणाली में भी सुधार पर चर्चा आवश्यक है.
कार्यपालिका सुस्त है, निष्पक्ष नहीं है, बिकाऊ है, भ्रष्ट है, यही कहते हैं. जो अधिकारी घर में अपनी पत्नी, बहन, बेटी के प्रति संवेदनशील नहीं है, वह बाहर संवेदनशील कैसे हो जायेगा? प्रशिक्षण से कुछ बदलाव संभव है परंतु शिक्षा, संस्कार एवं पालन-पोषण में लैंगिक समानता हेतु प्रयास भी आवश्यक है.
किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्माण 14 वर्षो की उम्र तक हो जाता है. उस उम्र के बाद थोड़ा बहुत परिवर्तन संभव है. अतः प्रयास प्रारंभिक अवस्था में की जानी चाहिए. यदि एक शिक्षक छात्र को सुधारने के लिये पीटता है तो छात्र क्या सीखसता है- किसी की गलती के लिए मारना जायज है. फिर यदि वही छात्र बड़ा होकर अपनी पत्नी, बेटी, एवं अन्य को पीटता है तो इसके लिए क्या सिर्फ वही जिम्मेवार है?
यदि वह किसी पद पर चला जाये तो क्या उसका व्यक्तित्व बदल जायेगा? नहीं. स्थायी सुधार के लिये सामाजिक व्यवस्था में सुधार आवश्यक है. हमें तत्कालिक एवं दीर्घकालिक दोनों उपाय अपनाने ही होंगे.
कार्यपालिका के ढुल-मुल रवैये में स्वतः संज्ञान लेने वाला न्यायपालिका, अपने कार्यो पर संज्ञान कब लेगा. न्यायिक प्रक्रिया में विलंब के जिम्मेदारों को कब गुनाहगार माना जायेगा? यदि ऐसा नहीं हुआ तो हम सिर्फ कहते रहेगें, विलंब से मिलने वाला न्याय-न्याय नहीं होता.
दुष्कर्मी को फांसी के बजाय त्वरित न्याय एवं समस्या का समाधान के जगह बहाना खोजने वालो पर भी कार्यवाही समस्या का एक समाधान है.
हमे भी थोड़ा और ईमानदार बनना होगा, दुष्कर्म की घटना को प्राथमिकता न देकर को दुष्कर्म को मुद्दा बनाना होगा.
मुद्दा दुष्कर्म के मनोवृति के जन्म का रोकथाम, दुष्कर्म की घटना का रोकथाम, दुष्कर्म से सुरक्षा, त्वरित न्याय एवं दुष्कर्मियों को सख्त व त्वरित सजा को बनाना होगा. एनकाउंटर जैसे कदम से भावनाओं को शांति तो मिल सकती है, पर स्थायी समाधान नहीं.