रांची: एक ओर जहां इंसान अपनी बड़ी बड़ी ख्वाहिशों का ताजमहल बनाता है, विदेश जाने के सपने संजोता है वहीं एक इंसान ऐसा है जो इन सभी चीजों का त्याग कर समाज में फैली गैर-बराबरी को मिटाकर जरूरतमंदों को मुख्य धारा में लाना और इतनी हरियाली लाना कि आने वाली कई पीढ़ियों को फलदार पेड़-पौधे मिलते रहें, इस शख्स का मुख्य उद्देश्य है.
ये कोई आम शख्सियत नहीं हैं बल्कि अपनी देश-विदेश की डिग्रियों, बड़ी नौकरी को छोड़ अपने आपको देश, समाज और प्रकृति के हवाले कर देने वाले दिल्ली आईआईटी के पूर्व प्रोफ़ेसर आलोक सागर हैं. वे खुद को छिपाकर बीते 30 सालों से आदिवासियों के बीच अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं. आपको बता दें की प्रो. आलोक सागर पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन के गुरू रह चुके हैं.
आज हम जानेंगे उनकी कहानी जो आम और खास के अंतर को खत्म करने बीते 29 साल से वनवासियों के बीच स्वयं वनवासी बनकर जीवन जी रहा है. यदि आप उनसे पूर्व परिचित नहीं हैं, तो आप पहली नजर में वनवासी ही समझेंगे. शाहपुर से करीब 25 किलोमीटर दूर कोचामऊ के कल्ला के खेत में झोपड़ी बनाकर रहते हैं. IIT दिल्ली के पूर्व प्रोफेसर व बहुत सी भाषाओं के जानकार होने के बावजूद प्रचार-प्रसार से दूर सादगी भरा आनंद का जीवन जी रहे हैं. आलोक सागर, जिन्होंने आईआईटी दिल्ली से इंजीनियरिंग करने के बाद अमेरिका की मशहूर ह्यूसटन यूनिवर्सिटी से पीएचडी की पढ़ाई की है. वहीं कनाड़ा में 7 साल जॉब करने के बाद वे वापस यहां आ गए.
मकसद है स्वरोजगार का अवसर बढ़ाना
मोबाइल ने आज इंसान को इतना अधिक जकड़ लिया है कि वह इंसान के सहज स्वभाव को खत्म कर रहा है. वनवासियों के जंगल बचे रहे स्वरोजगार के अवसर बढ़ें ताकि नौकरी पर निर्भरता कम होते रहे. इस मकसद से वे लोगों के बीच काम भी कर रहे हैं और साधारण जीवन जी रहे हैं. 10 बाइ 10 की झोपड़ी में 2 जोड़ कुर्ता-पाजामा और साइकिल के अलावा कुछ राशन और बर्तन ही उनकी पूंजी है.
“कोचमऊ में लगाए लीची, अंजीर, काजू के पेड़”
प्रोफेसर आलोक सागर ने कोचमऊ में फलदार चीकू, लीची, अंजीर, नीबू, चकोतरा, मोसबी, किन्नू, सन्तरा, रीठा, आम, महुआ, आचार, जामुन, काजू, कटहल, सीताफल के सैकड़ों पेड़ लगाए हैं.
जानिये “कौन हैं प्रोफेसर आलोक सागर”
प्रोफेसर आलोक सागर का जन्म 20 जनवरी 1950 को दिल्ली में हुआ. आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर बने. यहां मन नहीं लगा तो नौकरी छोड़ दी. वे यूपी, मप्र, महाराष्ट्र में रहे. पिता सीमा शुल्क उत्पाद शुल्क विभाग में कार्यरत थे. एक छोटा भाई अंबुज सागर आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर हैं. एक बहन अमेरिका कनाडा में तो एक बहन जेएनयू में कार्यरत थीं.
“पर्यावरण संरक्षण : सरलता और यथार्थ जीवन बन चुकी है पहचान
69 साल की उम्र में भी डॉ. आलोक सागर रोज खापा पंचायत के कोचामऊ गांव के खेत में लगे पौधों में बाल्टी से पानी डालने जाते हैं. वहीं डॉ. सागर कहीं भी आना-जाना साइकिल से करते हैं. वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर उनकी प्रतिक्रिया उनके सहज दार्शनिक अंदाज उनके वास्तविक अनुभव को दर्शाता है. उनका कहना है कि वर्तमान शिक्षा में इंसान को नौकर बनाने पर अधिक फोकस है. लोग बच्चों को शिक्षा से जोड़कर निश्चित हो जाते हैं. आदमी दिमाग का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है. लोग कहते हैं दिल्ली में बैठा आदमी गांव की सोच रहा है. जबकि गांव के आदमी को गांव के हित के लिए सोचना चाहिए. व्यवस्था ने इंसान का दिमाग अस्थिर कर दिया है.
वो कहते है ना की-
कर्म की गठरी लाद के जग में फिरे इंसान
जैसा करे वैसा भरे विधि का यही विधान
कर्म करे किस्मत बने,जीवन का ये मर्म
प्राणी तेरे भाग्य में तेरा अपना कर्म
पूर्व प्रोफ़ेसर आलोक सागर के कर्म से आज कितने लोग लाभ उठा रहे है ऐसा है उनका कर्म और उनका वक्तित्व.