-अंग्रेज अधिकारी ने रची थी हत्या की साजिश
रांची: बिहार में अंग्रेजी शासनकाल और आजादी के बाद करीब पांच दशक तक सक्रिय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पंडित विनोदानंद झा स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई में भी हिस्सा लिया.
स्वतंत्रता आंदोलन के क्रम में वर्ष 1922, 1930, 1940 और 1942 में लंबी अवधि के लिए जेल गये. एक बार की जेल यात्रा के दौरान संताल परगना के अंग्रेज कमिश्नर ने उन्हें जान से मार डालने का भी प्रयास किया. तब वे दुमका जेल में बंद थे.
जेल में बंद करने के बाद ग्रेनाइट की चट्टानों को तोड़ कर गिट्टी बनाने का उन्हें काम दिया गया. जिस पर उन्होंने आंखों पर लगाने के लिए एक खास तरह के गोगल्स मांगे. तब जेल में तहलका मच गया कि कैदी गोगल्स लगाकर पत्थर तोड़ेंगे. यह तो कभी किसी ने सुना ही नहीं था.
उन्होंने जाने कहां-कहां से प्रमाण जुटा कर आरचर साहब के सामने रखा और कहा कि अफ्रीका के असभ्य क्षेत्रों में भी जहां यूरोपियन लोगों का अत्याचार अपनी चरम सीमा पर है, वहां के मूल निवासियों को यदि जेल में पत्थर तोड़ने के लिए कहा जाता है, तो उन्हें गोगल्स अवश्य दिये जाते हैं. फिर अंग्रेजों का तो दावा है कि उन्होंने भारत को बहुत सभ्य बना दिया है.
अंग्रेज अधिकारी आरचर इस मांग पर झल्ला उठा. उसने क्रोध में यह निश्चय किया कि पं. विनोदानंद झा को दुमका जेल से स्थानांतरित करके देवघर जेल भेज देना चाहिए.
पूरे जेल में तहलका मच गया, क्योंकि आरचर के राज में कैदियों के ऐसे स्थानांतरण का मतलग लोग बिना बतलाये समझ लेते थे. कैदी तो खानगी (जेल की सीखंचों वाली गाड़ी) दुमका जेल से शाम को जाएगी, लेकिन कैदी सुबह देवघर नहीं पहुंच सकेंगे, यह तय था.
खानगी समय से हुई. विनोदा बाबू को हथकड़ियां पहना दी गयीं और जेल की सीखंचों वाली गाड़ी के भीतर बैठा दिया गया. जेल के हवलदार चौबे जी चार सिपाहियों के साथ उनके आसपास बैठे. सिपाही स्वयं समझ रहे थे यह बहुत बड़ा पाप होने जा रहा है. कोई किसी को बोल नहीं रहा था.
उन्होंने हवलदार चौबे से पूछा- क्यों हवलदार साहब इस समय हमारा मालिक कौन हैं! चौबे जी ने चौंक कर उनकी ओर देखा फिर अपनी सहज मुद्रा में उसने कहा-पंडित जी! आपके मालिक ऊपर भगवान जी हैं और नीचे हम सिपाही लोग. विनोदा बाबू जोर से हंसे-ठीक चौबे जी, लेकिन होशियार रहियेगा, कहीं आपके और भगवान के बीच में आज की रात कोई और न आ टपके.
ठीक उसी समय एक गाड़ी आयी और आगे बढ़कर जेल की गाड़ी के आगे खड़ी हो गयी. गाड़ी से आरचर उतरा. आंखें शराब के नशे में लाल थीं, हाथ में पिस्तौल थी. आरचर दांत पीसता खड़ा हो गया और कैदी को नीचे उतारने को कहा. चौबे जी के भीतर का देवता जागा.
उसने कहा-‘हुजूर’ मुझे यह जिम्मेदारी दी गयी है कि गाड़ी में बैठे हुए कैदी को जीवित अवस्था में देवघर जेल को सौंप दूं. इस कार्य में बाधा आएगी, तो उसे सरकारी कार्य में बाधा माना जाएगा. इस समय सारे अधिकार हवलदार के पास यानी मेरे पास हैं.
इस कार्य में बाधा डालने वालों को कुचल कर रख देंगे. चौबे और उनके सिपाहियों ने बंदूकें तान लीं. आरचर दांत पीसता हुआ और गाली बकता हुआ गाड़ी घुमा कर दुमका वापस चला गया. इस प्रकार विनोदानंद झा एक प्रकार से मौत के द्वार पर दस्तक देकर बाहर आ गये.

