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वे आज भी जीवित हैं – भाग – 2 (राजा बलि) 

by bnnbharat.com
June 29, 2021
in क्या आप जानते हैं ?, जीवनी, वे आज भी जीवित हैं, वैदिक भारत, सनातन-धर्म, समाचार, संस्कृति और विरासत
वे आज भी जीवित हैं – भाग – 2 (राजा बलि) 
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वे जो युगों युगों से आज भी जीवित हैं। पढिये राजा बलि की कहानी।

पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा के पुत्र ऋषि कश्यप थे। कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति के दो पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष हुए। हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन हुए और विरोचन के पुत्र राजा बलि।  राजा बलि के माता का नाम विरोचन तथा विशालाक्षी था। राजा बलि स्वभाव से अपने दादा प्रह्लाद के समान विष्णुभक्त और दानवीर था किंतु उसमे दैत्यों के गुण होने के कारण अहंकार तथा अधर्म भी  था। राजा बलि का वर्णन कई पुराणों में भी मिलता है।

दक्षिण भारत में केरल का महाबलीपुरम था राजा बलि का राजधानी : अपने पिता विरोचन की देवराज इंद्र के द्वारा छल से हत्या कर देने के बाद राजा बलि तीनों लोकों के सम्राट बने थे। वह अत्यंत शक्तिशाली तथा पराक्रमी था तथा इसी के बल पर उसने तीनों लोकों पर अपना राज्य स्थापित कर लिया था। उनकी राजधानी दक्षिण भारत में केरल  थी।

राजा बलि का राज्य संपूर्ण दक्षिण भारत में था। उन्होंने महाबलीपुरम को अपनी राजधानी बनाया था। आज भी केरल में ओणम का पर्व राजा बलि की याद में ही मनाया जाता है। राजा बली को केरल में ‘मावेली’ कहा जाता है। यह संस्कृत शब्द ‘महाबली’ का तद्भव रूप है। इसे कालांतर में ‘बलि’ लिखा गया ।

राजा बलि का अहंकार और अश्वमेध यज्ञ : राजा बलि ने विश्वविजय की सोचकर अश्वमेध यज्ञ किया और इस यज्ञ के चलते उसकी प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी। अग्निहोत्र सहित उसने अपने गुरु शुक्राचार्य की सहायता से सौ अश्वमेघ यज्ञों का आयोजन करवाया था। 99वें यज्ञों का वह सफलतापूर्वक आयोजन कर चुका था और यदि वह सौवां यज्ञ भी निर्विघ्न आयोजित कर लेता तो इंद्र के पद पर वह हमेशा के लिए आसीन हो जाता।
इस तरह राजा बलि ने 99वें यज्ञ की घोषणा की और सभी राज्यों और नगरवासियों को निमंत्रण भेजा।
माना जाता है कि देवता और असुरों की लड़ाई जम्बूद्वीप के इलावर्त क्षेत्र में 12 बार हुई। देवताओं की ओर गंधर्व और यक्ष होते थे, तो दैत्यों की ओर दानव और राक्षस। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद और उनके पुत्र राजा बलि के साथ इन्द्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए, तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया।

भगवान विष्णु का वामन अवतार

जब भगवान विष्णु को बलि के द्वारा सौवां यज्ञ करने तथा उसके प्रभाव का ज्ञान हुआ तब उन्होंने धरती पर अवतार लेने का निश्चय किया। चूँकि राजा बलि उनके प्रिय भक्त प्रह्लाद का पौत्र था इसलिये वे उसका वध नही करना चाहते थे। इसलिये उन्होंने उसका अहंकार दूर कर इंद्र को फिर से स्वर्ग के आसन पर बिठाने के लिए एक योजना सोची। वह योजना थी वामन अवतार।

वामन अवतार : वामन ॠषि कश्यप तथा उनकी पत्नी अदिति के पुत्र थे। वे आदित्यों में बारहवें थे। ऐसी मान्यता है कि वह इन्द्र के छोटे भाई थे और राजा बलि के सौतेले भाई। विष्णु ने इसी रूप में जन्म लिया था।
इंद्र देवता गण बलि को नष्ट करने में असमर्थ थे। बलि ने देवताओं को यज्ञ करने जितनी भूमि ही दे रखी थी। सभी देवता अमर होने के बावजूद उसके खौफ के चलते छिपते रहते थे। तब सभी देवता विष्णु की शरण में गए। विष्णु ने कहा कि वह भी (बलि भी) उनका भक्त है, फिर भी वे कोई युक्ति सोचेंगे।
तब विष्णु ने अदिति के यहां जन्म लिया और एक दिन जब बलि यज्ञ की योजना बना रहा था तब वे ब्राह्मण-वेश में वहां दान लेने पहुंच गए। उन्हें देखते ही शुक्राचार्य उन्हें पहचान गए। शुक्र ने उन्हें देखते ही बलि से कहा कि वे विष्णु हैं। मुझसे पूछे बिना कोई भी वस्तु उन्हें दान मत करना। लेकिन बलि ने शुक्राचार्य की बात नहीं सुनी और वामन के दान मांगने पर उनको तीन पग भूमि दान में दे दी। तब ब्राह्मण वेश में वामन भगवान ने अपना विराट रूप दिखाया और एक पग में भूमंडल नाप लिया। दूसरे में स्वर्ग और तीसरे के लिए बलि से पूछा कि तीसरा पग कहां रखूं? पूछने पर बलि ने मुस्कराकर कहा- इसमें तो कमी आपके ही संसार बनाने की हुई, मैं क्या करूं भगवान? अब तो मेरा सिर ही बचा है। इस प्रकार विष्णु ने उसके सिर पर तीसरा पैर रख दिया। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णु ने उस पाताल में रसातल का कलयुग के अंत तक राजा बने रहने का वरदान दिया।

ऐसी मान्यता है कि तब से हर वर्ष, ओणम के अवसर पर वर्ष में एक बार राजा बलि अपने प्रजा से मिलने आते है।

वे आज भी जीवित हैं – भाग -1 (मार्कंडेय)

 

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