रांची: 6 एनसीसी बटालियन में कार्यरत सूबेदार मेजर राजेंद्र सिंह उन चुनिंदा जांबाजों में शामिल हैं, जिन्होंने वर्ष 1999 में पाकिस्तानी घुसपैठियों को कारगिल से भगाकर वहां फिर से तिरंगा फहराया था. इसी युद्ध से उन्हें पता चला कि पाकिस्तान की सेना कितनी कमजोर है. उन्हीं की जुबानी कारगिल की विजय गाथा.
कारगिल भारत के लिए आन-बान और शान की लड़ाई थी. पाकिस्तान मानने को तैयार नहीं था कि उसके सैनिकों ने भारत की सीमा में प्रवेश किया है. उधर, आतंकियों के वेश में पाकिस्तानी सैनिक वहां चौकियां बना चुके थे. वहां तक पहुंचने के रास्तों पर उनकी बंदूकें और अन्य हथियार तैनात थे.
मैं तीन महीने की ग्लेशियर ड्यूटी के बाद बेस कैंप लौटा ही था कि मई के अंतिम सप्ताह में फिर बुला लिया गया. मेरी बटालियन 13 कुमाऊं रेजांगला और हवास की टीम को सेना की तीन अलग-अलग टुकड़ियों के साथ तीन पोस्ट खाली कराने का जिम्मा सौंपा गया था.
मेरी और सूबेदार रामकिशन (सेना मेडल) की जिम्मेदारी कारगिल की चोटियों पर रोपवे बनाने की थी. मेरा पद सिपाही का था. मेरे साथ सेना की 3 टुकड़ियों में 60 सिपाही और थे, जिन्हें दुश्मनों के चंगुल से कारगिल के प्वाइंट 5810, 5880 रिंग कंटूर और 5685 को खाली कराना था.
सुबह की पहली किरण के साथ…
27 जुलाई को सुबह की पहली किरण के साथ हमने 5810 की चढ़ाई शुरू की. हमें अंदाजा था कि दुश्मनों ने पत्थरों में भी बारूदी सुरंगें बिछाई होंगी. आशंका सही थी. एक बारूदी सुरंग से साथी सिपाही सुमेर सिंह का बायां हाथ उड़ गया. इसके बाद भी सुमेर सिंह और दूसरे साथियों का जोश कम नहीं हुआ.
घंटों तक दुश्मन के साथ गोलाबारी होती रही. आधी रात से पहले ही हमने 5810 को कब्जे में ले लिया था. यहां करीब 6 घंटे चढ़ाई के बाद हमारी टीम 5880 रिंग कंटूर के पास पहुंची. यहां हमने करीब 20 पाकिस्तानी घुसपैठियों को मार गिराया. जो बचे, वे अपना खाना और हथियार छोड़कर भाग गए.
..और तिरंगा फहरा दिया
5880 को पाने में हमने एक साथी राम दुलारे को खो दिया. हम यहां भी नहीं रुके और प्वाइंट 5685 के लिए चढ़ाई शुरू कर दी. सूरज निकला ही था कि बारूदी सुरंगों ने हमारे पांच साथियों की जान ले ली. ऊपर से पाकिस्तानी सैनिक अंधाधुंध फायरिंग कर रहे थे.
दोपहर तक हमारे 12 और साथी शहीद हो गए थे. इधर से दुश्मनों के खिलाफ जवाबी फायरिंग में कोई कमी नहीं हुई. देखते ही देखते पाकिस्तानी फौजियों के हौसले पस्त होने लगे और वे 5685 को छोड़कर भाग खड़े हुए. दिन में लगभग 3 बजे साथियों के साथ हमने यहां तिरंगा फहरा दिया.
उस समय मेरी सर्विस केवल 10 साल की थी. कारगिल युद्ध लड़ने के बाद हमें यह पता चल गया कि पाकिस्तानी सेना कितनी कमजोर है. शायद इसीलिए वह सामने से लड़ने के बजाय छद्म युद्ध में विश्वास रखती है.