आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। सनातन संस्कृति में गुरु देवता को तुल्य माना गया है। गुरु को हमेशा से ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान पूज्य माना गया है। वेद, उपनिषद और पुराणों का प्रणयन करने वाले वेद व्यासजी को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है। महर्षि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग 3000 ई. पूर्व में हुआ था। उनके सम्मान में ही हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी दिन व्यास जी ने शिष्यों एवं मुनियों को सर्वप्रथम श्री भागवतपुराण का ज्ञान दिया था। अत: यह शुभ दिन व्यास पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। गुरु के बिना न तो जीवन की सार्थकता है और न ही ज्ञान प्राप्ति संभव है। जिस तरह हमारी प्रथम गुरु मां हमें जीवन देती हैं और सांसरिक मूल्यों से हमारा परिचय कराती हैं। ठीक उसी तरह ज्ञान और भगवान की प्राप्ति का मार्ग केवल एक गुरु ही दिखा सकता है।
इस एक पूर्णिमा की पूजा से मिल जाता है सभी का लाभ
वर्ष की अन्य सभी पूर्णिमाओं में इस पूर्णिमा का महत्व सबसे ज्यादा है। इस पूर्णिमा को इतनी श्रेष्ठता प्राप्त है कि इस एकमात्र पूर्णिमा का पालन करने से ही वर्ष भर की पूर्णिमाओं का फल प्राप्त होता है। गुरु पूर्णिमा एक ऐसा पर्व है, जिसमें हम अपने गुरुजनों, महापुरुषों, माता-पिता एवं श्रेष्ठजनों के लिए कृतज्ञता और आभार व्यक्त करते हैं।
इसको भारत, नेपाल और भूटान में हिन्दू, जैन और बोद्ध धर्म के अनुयायी उत्सव के रूप में मनाते हैं। यह पर्व हिन्दू, बोद्ध और जैन अपने आध्यात्मिक शिक्षकों / अधिनायकों के सम्मान और उन्हें अपनी कृतज्ञता दिखाने के रूप में मनाया जाता है।
शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है।
“अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजन शलाकया,चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरुवै नमः “