राहुल मेहता
रांची: कभी-कभार ही ऐसा होता है जब कोई अच्छी खबर भी आपको चिंतित कर देती हो. दुर्भाग्य से आज फिर ऐसा हुआ. यह परिस्थिति गंभीर ही नहीं काफी चिंताजनक है. सरकार और न्यायपालिका को इस पर गंभीर विचार करना चाहिए. 7 साल की जटिल कानूनी प्रक्रिया के बाद निर्भया के गुनाहगारों को फांसी के फंदे से लटका दिया गया. लेकिन जनता में ना कोई जिज्ञासा, ना कोई उत्सुकता न ही विशेष हर्षोल्लास. हैदराबाद एनकाउंटर की तुलना में जनता अभी तक लगभग निष्क्रिय. आखिर क्यों? क्या यह न्यायपालिका पर अविश्वास के कारण तो नहीं? अगर ऐसा है तो यह एक गंभीर संकेत है.
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अनावश्यक विलंब से निराशा
भारत में न्याय प्रक्रिया अत्यंत जटिल एवं लंबी है. लेकिन निर्भया के गुनाहगारों ने जिस प्रकार कानून का माखौल उड़ाया और अपनी फांसी बारंबार टलवाने में सफल रहे उसके फलस्वरूप लोगों का विश्वास डिग गया. अधिकतर लोग को लगा कि इस बार भी फांसी टल जाएगी. विलंब का परिणाम था कि एनकाउंटर जैसे गैर- न्यायिक प्रक्रिया को भी अपार जनसमर्थन मिला. संलग्न पुलिस ऑफिसर रातों रात हीरो बन गए. शायद ही निर्भया के दोषियों को सजा सुनाने वाले जजों को उसका एकांश सम्मान मिले. यह अविश्वास न्यायपालिका के लिए चिंता का विषय होना चाहिए और उसे न्यायिक प्रक्रिया में सुधार हेतु त्वरित आवश्यक कदम उठाने चाहिए.
कार्रवाई कर्तव्य की इतिश्री नहीं
दुष्कर्म के गुनाहगारों को सजा मिली, यह राहत की बात है लेकिन सिर्फ इस प्रयास से दुष्कर्म रुकने वाले नहीं. दुष्कर्म को रोकने के लिए न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्था, विशेषकर पुलिस को अपने कार्यप्रणाली में मूलभूत सुधार की आवश्यकता तो है ही सामाजिक मानदंडों में भी परिवर्तन आवश्यक है. आज भी अनेक सामाजिक मानदंड दुष्कर्म के दोषियों को ही लांछित करते हैं. कभी लड़कियों के कपड़े तो कभी उनके घर से निकलने के समय को अपराध का कारण बनाते हैं. आत्मावलोकन का समय उनके लिए भी है.
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मुद्दे के जगह विद्वेष को प्राथमिकता
हाल के दिनों में प्रमुख दुष्कर्म की घटनाओं में जनता की प्रतिक्रिया ने चिंतित ही किया है. विशेष रुप से धार्मिक उन्माद एवं विद्वेष के कारण कुछ लोग दुष्कर्म को अपराध के आईने से देखने के बजाय धार्मिक दृष्टिकोण से देखने लगे हैं और दूसरे धर्म को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं. इसी कड़ी में अगर कोई कहता है कि निर्भया के दोषियों में कोई कमाल पाशा नहीं था इसलिए जनता की प्रतिक्रिया सुस्त है तब यह सभी नागरिकों पर भी गंभीर सवाल उत्पन्न करता है. अपराध को धार्मिक जामा पहनाने से मुद्दे की गंभीरता समाप्त होती है. यह आत्मावलोकन का समय उनके लिए भी है कि वे मुद्दे को प्राथमिकता देते हैं या अपने विद्वेष को.