जगदम्बा प्रसाद शुक्ल,
प्रयागराज: बकरीद जिसे ईद उल अजहा के नाम से भी जाना जाता है यह इस्लाम धर्म मानने वाले लोगों का प्रमुख त्यौहार है. रमजान के पवित्र महीने के लगभग 70 दिन बाद यह त्यौहार मनाया जाता है. बकरीद का दिन फर्ज ए कुर्बान का दिन माना जाता है. इस त्यौहार का प्रारंभ उन हज़रत इब्राहीम से हुआ जिन्हें अल्लाह का बंदा माना जाता है और जिनकी इबादत पैगम्बर के तौर पर की जाती है. उभारी ईदगाह के मौलाना यूसुफ ने बताया कि खुदा ने हज़रत मुहम्मद साहब की परीक्षा लेने के लिए उन्हें आदेश दिया कि वे तभी प्रसन्न होंगे जब हज़रत अपने सबसे अजीज को अल्लाह के सामने कुर्बान करेंगे.
हज़रत के सबसे अजीज उनके बेटे हजरत इस्माइल थे जिन्हें कुर्बान करने का फ़ैसला लिया गया. इस कुर्बानी को करना इतना आसान नहीं था इसलिए कुर्बानी देने से पहले हजरत इब्राहीम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध लिया और अपने बेटे की कुर्बानी दे दिया. जब उनकी आंख से पट्टी हटाई गई तो देखा कि अल्लाह ने उनके बेटे की जान बख्श दिया और उनकी जगह हज़रत के अजीज बकरे की कुर्बानी कबूल कर लिया. तभी से यह पर्व कुर्बानी के लिए जाना जाता है.
हज से लौटने पर की जाती है कुर्बानी
मौलाना तारिक के अनुसार इस्लाम में हज करना जिंदगी का सबसे जरूरी भाग माना जाता है. जब कोई हज करके लौटता है तो बकरीद के दिन अपने अजीज की कुर्बानी देता है जिसके लिए पहले से ही एक बकरे को पाला जाता है. उसके सभी अंग सही सलामत रहें और किसी प्रकार की बीमारी न हो इसलिए सही ढंग से उसका खयाल रखा जाता है.
गरीबों का रखा जाता है ध्यान
बक़रीद के दिन सबसे पहले ईदगाह में नमाज अदा की जाती है तथा नए कपड़े पहने जाते हैं. इस दिन गरीबों का खास ध्यान रखा जाता है. उन्हें खाने के लिए भोजन व पहनने के लिए कपड़े दिए जाते हैं. कुर्बानी देने के बाद उसका एक तिहाई हिस्सा खुदा को, एक तिहाई हिस्सा परिवार व दोस्तों को तथा एक तिहाई हिस्सा गरीबों को दिया जाता है.