रांची: भारतीय सिनेमा को उत्कृष्ट ऊंचाई पर ले जाने वाले प्रारंभिक निर्देशकों में बिमल रॉय सबसे अव्वल माने जाते हैं. 12 जुलाई, 1909 में बांग्लादेश के ढाका के जमींदार परिवार में उनका जन्म हुआ था. विमल रॉय हिंदी सिनेमा को साहित्य से जोड़नेवाली कड़ी माने जा सकते हैं. उनकी शरतचंद्र के साहित्य में विशेष रूचि थी.
इन्होंने कोलकाता के न्यू थिएटर में कैरियर की शुरुआत की थीं. यहां 10 से ज्यादा फिल्मों का छायांकन किया. इसी समय इन्होंने पीसी बरुआ की फिल्म देवदास और मुक्ति के लिए छायांकन किया था. न्यू थिएटर के बाद ये बम्बई चले गये और शरत चन्द्र की तीन कथाओं पर फि़ल्मों का निर्माण करना शुरू किया. 1953 में अशोक कुमार के प्रोडक्शन के लिए परिणीता बनाई. 1954 में बिराज बहु हितेन चौधरी प्रोडक्शन के लिए बनी थी. इनका फिल्मांकन बिमल रॉय ने ही किया था. 1955 में इन्होंने देवदास का फिल्माकंन अपने ही बैनर के तहत किया था.
शरत की रचनाओंं को बिमल रॉय ने तल्लीनता और कलात्मक अभिरुचि से विशेष आयाम दिया. परिणीता में बिमल रॉय ने बंगाल के सादे परिवारिक जीवन को बखूबी दिखाया है. इसमें अशोक कुमार और मीना कुमारी की जोड़ी ने एक लाजवाब अभिनय किया था.
निर्देशक के तौर पर इनकी पहली फिल्म उदयेर पाथे थी जो सामाजिक कुरीतियों पर आधारित थी.
1960 में विमल राय ने परख नाम की फिल्म साधना को लेकर बनाई. 1962 में प्रेम पत्र का निर्देशन किया.
मेरे साजन हैं उस पार
बिमल दा की एक और यादगार फिल्म बंदिनी 1963 में आई. इसमें हत्या के आरोप में एक महिला बंदी की कहानी है. इसमें नूतन ने शानदार भूमिका निभाई थी. इसमें एसडी बर्मन का गाया लाजवाब गीत मेरे साजन हैं उस पार मैं इस ओ मेरे मांझी चल उस पार था. इसे सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था.
सुपरहिट फिल्म मधुमति
बिमल राय की यादगार फिल्मों में सुपरहिट फिल्म मधुमति (1959) थी. इसमें दिलीप कुमार और वैजयंती माला की जोड़ी ने कमाल किया था. इस फिल्म के गीत भी काफी लोकप्रिय हुए. यह उनकी दूसरी फिल्म थी सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था.
सुजाता भी उनकी बेहतरीन फिल्म थी.
साहित्य प्रेमी होने की वजह से ही उन्होंने उसने कहा था कहानी पर इसी नाम से फिल्म बनाई थी. इसी के साथ रविंद्रनाथ टैगोर की कहानी पर काबुलीवाला बनाई.
विमल राय ने सात बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता था.
विमल दा खुद जितने प्रतिभाशाली थे वैसे ही इनकी टीम के सदस्य भी. इनके सहायक निर्देशकों में गुलजार और ऋषिकेश मुखर्जी भी शामिल थे. इन दोनों ने इनकी छत्रछाया में फिल्म निर्माण का प्रशिक्षण लेकर एक से बढ़कर एक शानदार फिल्में खुद निर्देशित की. ऋत्विक घटक ने भी इनके साथ काम किया था.
जमीन बचाने की जद्दोजहद की करूण गाथा दो बीघा जमीन
बिमल राय की सबसे शानदार फिल्म दो बीघा जमीन थी. इसका निर्माण 1953 में किया था. इस फिल्म के लिए विमल राय को सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पहला फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया था.
देश को आजाद हुए कुछ ही साल हुए थे. औद्योगिकरण का नया दौर शुरू ही हुआ था. इसी का आधार बना कर ग्रामीण जीवन में आए तूफान की कहानी का तानाबाना संगीतकार सलील चौधरी ने बड़े ही मार्मिक ढंग से बुना है. आज यह फिल्म अधिक प्रासंगिक है क्योंकि आज इस तरह के किसानों के मजदूर बनने या अन्य छोटे मोटे काम करने को विवश होने के मामले काफी बढ़ गए हैं.
यह कथा शंभू महतो (बलराज साहनी) नाम के एक छोटे किसान की है. वो अपनी दो बीघा जमीन पर खुद मेहनत कर अपने छोटे से परिवार पिता, पत्नी व बेटे के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रहा था. वो अपनी कम आमदनी के बावजूद परिवार के साथ खुश था. इसी दौरान शहर के कुछ उद्योगपतियों के साथ मिल गांव का जमींदार एक फैक्ट्री लगाना चाहता है. जमींदार की जमीन से ही सटी शंभू महतो की दो बीघा जमीन भी है. शंभू की जमीन को मिलाए बिना उस भूमि पर फैक्ट्री खड़ी करने में अड़चन आती है. इस पर जमींदार शंभू की जमीन को हड़पने के लिए षडयंत्र रचता है. इससे शंभू के जीवन में उथलपुथल मच जाती है.
शंभू ने जमींदार से कुछ रुपये कर्ज लिए थे जो उसके हिसाब से 65 ही बनते थे जबकि जमींदार खातों में हेरफेर कर उसे 235 रुपये बना देता है. शंभू अपनी जमीन को बचाने के लिए घर का अधिकतर सामान बेच देता है लेकिन फिर भी उसके पास उतने पैसे नहीं जुटते जितने जमींदार ने फरेब कर उस पर कर्ज बता दिए थे. यह मामला अदालत में जाता है. वहां कर्ज चुकाने के लिए शंभू को दो महीनों की मोहलत मिलती है.
ऐसे में शंभू पैसे कमाने के लिए कलकत्ता चला जाता है. उसका बेटा भी चुपके से उसके साथ हो लेता है. कलकत्ता पहुंचने पर वो कई जगह नौकरी की तलाश करता है लेकिन उसे दुत्कार ही मिलती है. आखिर थक हार कर रात में बेटे के साथ फुटपाथ में ही सो जाता है. पहली ही रात शंभू की गठरी चोरी हो जाती है. उसी में उसका सारा सामान और पैसे चले जाते हैं. फिल्म शहर के लोगों की मक्कारी, सीधे साधे लोगों को ठगने गरीबों को हेय दृष्टि से देखने को बड़े विश्वसनीय ढ़ंग से पेश किया गया है.
इस तरह से बगैर पैसे के एक अनजान शहर में एक अनपढ़ किसान अपने मासूम बेटे के साथ मुसीबतों के भंवर में फंस जाता है. उसे किसी तरह एक कमरा किराए पर मिल जाता है और मजबूरी में शंभू हाथ का रिक्शा खिंचने का काम करने लगता है. वो किसी तरह पाई-पाई बचा कर अपनी जमीन बचाने के लिए पैसे जमा करता है.
शंभू इतना मजबूर होता है कि वो ना चाहते हुए भी अपने मासूम बेटे को भी बूट पालिश का काम करने देता है. इसलिए क्योंकि वो जानता है कि हाथ रिक्शा खिंच कर वो कर्ज चुकाने के लिए पूरी रकम जमा नहीं कर पाएगा. शंभू अपनी पूरी ताकत रिक्शा खींचने में झोंकता है पर दुर्भाग्य उसका पीछा नहीं छोड़ता.
एक दिन रिक्शा तेज चलाने के चक्कर में उसका एक्सीडेंट भी हो जाता है. ऐसी लाचारी के हालत में भी वो रिक्शा चलाने जाना चाहता है पर नहीं जा पाता. शंभू की इस बेबसी तथा संघर्ष की जद्दोजहद को बलराज साहनी ने बड़ी शिद्दत से उभारा है. एक खुशहाल किसान की मजदूर बनने की विवशता को बलराज लोगों के दिलों तक पहुंचाने में सफल होते हैं.
इस रोल में बलराज साहनी इसलिए परफेक्ट लगे हैं क्योंकि उन्होंने सचमुच में खाली पैर कलकत्ता की सड़कों पर हाथ रिक्शा चलाने का अभ्यास भी किया था. रिक्शेवालों से बातचीत भी की थी. इसके अलावा फिल्म की शूटिंग भी कलकत्ता में कार में कैमरा छुपा कर की गई थी ताकि दृश्य ज्यादा वास्तविक व यथार्थवादी लगें.
शूटिंग के दौरान तो एक बार एक जगह रिक्शा खड़ा करने पर एक रिक्शेवाला बलराज से बहस भी करने लगा था और अपने साथियों को बुला लिया था ये देख यूनिट के लोग कार से बाहर आए और रिक्शेवालों को बताया कि फिल्म की शूटिंग हो रही है. इसी तरह एक बार बलराज के रिक्शे पर एक मोटा सा आदमी आकर बैठ गया तो उसे भी उन्होंने बिना कुछ कहे गंतव्य तक पहुंचा दिया था. इस तरह से अपने काम के प्रति समर्पण की वजह से ही बलराज साहनी हिंदी सिनेमा के सबसे बेहतरीन अदाकारों में शुमार हैं.
शंभू की पत्नी पारो की भूमिका में #निरूपा राय ने भी बढिय़ा अभिनय किया है. पारो अपने पति और बेटे को लाने के लिए शहर जाती है तो वहां वो एक बदमाश के चंगुल में फंस जाती है जो उसके साथ दुष्कर्म कर उसके रुपये छीनने की कोशिश करता है. वो किसी तरह भागती है लेकिन रास्ते में वो एक कार की चपेट में आकर घायल हो जाती है. संयोग से शंभू वहां पहुंचता है और उसे रिक्शे में लेकर अस्पताल जाता है. इसके बाद यह छोटा सा परिवार जब अपने गांव लौटता है तो देखता है कि उनकी जमीन पर फैक्टरी बन रही है.
शंभू अपनी जमीन अपनी सारी ताकत लगाने के बाद भी नहीं बचा पाता है. लाचार और बेबस शंभू अपनी जमीन की मिïट्टी उठाकर रखना चाहता है लेकिन चौकीदार उसे डपट कर भगा देता है. ऐसी त्रासद कथा दर्शकों को अंतरतम तक झकझोर देती है. शंभू की त्रासदी प्रेमचंद के उपन्यास गोदान के नायक होरी की त्रासदी की भी याद दिलाती है.