वर्ष 1964 में पहली बार निकली थी शोभायात्रा
रांची: रांची में 1964 से सरहुल की शोभायात्रा निकाली जा रही है यह दूसरी बार है कि इस वर्ष कोरोना वायरस की वजह से सरहुल की शोभा यात्रा स्थगित की जा रही है. सरना समुदाय के विभिन्न प्रतिनिधियों और जिला प्रशासन की संयुक्त बैठक के बाद निर्णय लिया गया है की इस वर्ष अपने-अपने अखड़ा में ही सरहुल पूजा की जाएगी.
केंद्रीय सरना समिति के अनुसार 1964 में पहली बार रांची में सरहुल की शोभायात्रा निकाली गयी थी. इस शोभायात्रा को जमीन बचाने के लिए निकाला गया था. सिरोम टोली स्थित केंद्रीय सरना स्थल पर एक व्यक्ति द्वारा अतिक्रमण किया जा रहा था.
सिरोम टोली के लोगों ने अतिक्रमण हटाने के लिए समाज के लोगों से मदद मांगी. तब स्व कार्तिक उरांव, पूर्व मंत्री करमचंद भगत और अन्य लोगों ने सिरोम टोली को अतिक्रमण से मुक्त कराया और पूजा-अर्चना की. उसी के बाद से सरहुल की शोभायात्रा निकलने लगी. स्पष्ट है कि सरहुल की शोभायात्रा की शुरुआत जमीन बचाने के लिए थी.
पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा का था अहम योगदान
सरहुल की शोभायात्रा को लोकप्रिय बनाने में पद्मश्री स्व डॉ रामदयाल मुंडा का बड़ा योगदान रहा. अमेरिकी नागरिक और स्व डॉ रामदयाल मुंडा की पहली पत्नी हेजेल ने एक बार एक किस्सा सुनाया था. अमेरिका से डॉ रामदयाल मुंडा के वापस रांची आने के बाद एक कार्यक्रम में आदिवासी नृत्य के माध्यम से लोगों का स्वागत किया जा रहा था.
इस दौरान लोगों ने आदिवासी नृत्य व गान को बंद करने को कहा क्योंकि वह उन्हें अच्छा नहीं लगता था और वे इसे हीन दृष्टि से देखते थे. अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में आदिवासी समुदाय के लोग भी दूसरे लोगों के समक्ष अपने नृत्य व गीतों की प्रस्तुति को लेकर हिचकते थे.
डॉ रामदयाल मुंडा ने इस हिचक को दूर किया और आदिवासी समुदाय के बीच अपने गीत व नृत्य को लेकर एक अभिमान का भाव भरा. सरहुल की शोभायात्रा में जब वे खुद मांदर को गले में टांगकर निकलते थे, तो वह देखने लायक दृश्य होता था.
राज्य गठन के बाद सरहुल की शोभायात्रा में आया बदलाव
झारखंड अलग राज्य के गठन के बाद सरहुल की इस शोभायात्रा में धीरे-धीरे कई बदलाव देखने को मिले. पहले लोग सिर्फ ढोल-मांदर, नगाड़े के साथ निकलते थे. बाद में लाउडस्पीकरों पर नागपुरी गीतों के साथ जुलूस में शामिल होने लगे.
इसके बाद डिस्को लाइट और रिमिक्स गीतों का भी दौर शोभायात्रा में जुड़ गया. एक और परिवर्तन यह था कि शोभायात्रा में झांकियां भी निकलने लगी. इन झांकियों में जल, जंगल जमीन बचाने, पर्यावरण की रक्षा, गांव का जीवन जैसे दृश्य होते हैं.
इसके अलावा जनजातीय जीवन के विभिन्न पहलुओं से जुड़े मुद्दे भी इन झांकियों का विषय होते हैं. इस बार सीएनटी/एसपीटी कानून में संशोधन के खिलाफ झांकियां निकालने की अपील की गयी है.
कुछ लोग कहते हैं कि सरहुल एक धार्मिक आयोजन है और इसमें इस तरह की चीजें नहीं होनी चाहिए. पर लोगों को यह भी जानना चाहिए कि आदिवासी समुदाय की सारी व्यवस्थाएं एक दूसरे से जुड़ी हैं.