पदमा सहाय
रांचीः बेटियां तो बेटियां ही होती है. बेटियां ऐसी कि परिवार की बेहतरी के लिए अपने अरमानों का गला भी घोंट देती है. चाहे अरमां आंसुओं में क्यों न बह जाए. हर अरमां को दफन कर अपने मां-बाप, भाई-बहन व पति व अपने परिवार के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती हैं. आज इन बेटियों की सुरक्षा खतरे में आ पड़ी है. इनके साथ जो हो रहा वह बड़ा वीभत्सकारी है. फिर भी बेटियां तो बेटियां ही होती हैं. एक बेटी जो अपनी रचना में लिखती भी हैं कि मैं तुम्हे फिर मिलूंगी. एक जन्म और लेना चाहती हूं अपनों के लिए. ये जन्म और इसकी स्मृति मेरे साथ चलेगी चाहे मैं जहां भी रहूं तुम्हारी(अपने परिवार) यादों से सराबोर रहूंगी.
हवा का झोंका बन छूकर निकल जाउंगी
अपनी मर्मस्पर्शी रचना में बेटी कहती भी है कि तब तक उस स्याह इंतजार के समय में भी मैं अपनों के पास ही मिलूंगी. कभी तितली बन कर तुम्हारी प्रदक्षिणा कर उड़ जाउंगी तो कभी घनघोर जंगल मे कोई गिलहरी बनकर अपनों के साथ ही चलूंगी. वादा है मेरा मैं तुम्हें फिर मिलूंगी. कभी हल्की बारिश की बूंद बनकर चेहरे से चिपक जाउंगी, कभी बर्फीली ठंडी हवा का झोंका बन तुम्हें छूकर निकल जाउंगी. क्या पता किसी के दिये हुए गुलदस्ते के गुच्छों में एक फूल बनकर अपनों के सुरक्षित हाथों में सौंप दी जाउंगी या कोई जुगनू बनकर तुम्हारे कॉलर पर बैठ जगमगाऊंगी. शायद कभी बुलबुल बन कर तुम्हारे आंगन में तुम्हें निहार कर चली जाउंगी या गौरेया बन कर तुम्हारे घर के रोशनदान में बस जाउंगी. मैं जहां भी जाउंगी ये जन्म और तुम्हारी यादें साथ जाएंगी. निर्माण जब सृजन क्षमता खो रहा होगा तब मैं अपना और अपनों का भाग्य लिख रही होउंगी. कभी तुम्हारी यादों में तो कभी अपनों की बातों में कभी तुम्हारे आंसुओं की मुस्कुराहट में मेरी उपस्थिति तुम्हे दिखती रहेगी. नहीं बच सकोगे मेरी यादों से. तुम्हें भी कभी साथ मेरे चलना ही होगा. एक जन्म और तुम्हें भी लेना होगा मेरे लिए.
स्त्री का मन और नदी का जल बेहद पवित्र
बेटी अपनी रचना में कहती भी है यदि नदी बहना छोड़ दे और स्त्री रोना छोड़ दे तो हाथ सिर्फ तबाही आती है. स्त्री का मन और नदी का जल बेहद पवित्र है. इतना पवित्र है कि सीधा शिव के सिर पर विराजमान होती है, बशर्ते नदी को नदी रहने दिया जाए और स्त्री को स्त्री. दोनों का जीवन ही है बहना, अपनी मौज में रहना. फिर चाहे जिंदगी के ऊंचे नीचे पथरीले रास्ते हो या जीवन संध्या का विशाल मैदानी भूभाग, वो बहना नही भूलती, ना ही भूलती है अपने आश्रितों का उद्धार करना और अपने मन की वचन बद्धता के लिए कभी भी साथ नहीं छोड़ती है. इस नारी नदी के जीवन में जितने भी कंकड़ आते हैं वो इसके वेग में बहकर शंकर बन जाते हैं और स्थापित हो जाते हैं किसी शिवालय में.
लेकिन जब ये चंचला क्रोधित होती है तब होता है विनाश, सिर्फ विप्लव जहां माफी की कोई गुंजाइश नहीं. होता है एक रुदन और क्रंदन जो इनकी भयावहता में छुपी होती है वो किसी को नहीं दिखती, दिखती है तो सिर्फ विनाशलीला. क्योंकि जब ये अपनी सीमाओं का सम्मान करती है तब मनुष्य इनका अपमान करता है और जैसे ही ये अपनी सीमाओं का उल्लंघन करती है मनुष्य त्राहिमाम करता है. इसलिए जरूरी है कि नदी को नदी और स्त्री को स्त्री रहने दिया जाए, उसकी मर्यादा को कभी न तोड़ें.