रांची: बच्चों को पढ़ाना मानो उनका जुनून है. उनका एक ही लक्ष्य है की इस गांव का एक भी बच्चा अनपढ़ ना रहे. आज मैं आपको ऐसे ही एक शिक्षक के बारे में बताता हूं,जो पैदल 10 किमी की दूरी तय कर बच्चों को पढ़ाने आते हैं.
ये और कोई नहीं बल्कि, फ्रांसिस मुंडा हैं. जो खुद टिन के डब्बे में बैठ कर बच्चों को पढ़ाते हैं. सारंडा का एक सुदूर गांव रांगरिंग है. जहां के बच्चे अपने नियमित समय से स्कूल में पहुंच जाते हैं. स्कूल में फ्रांसिस पहले से ही मौजूद रहते हैं.
लकड़ी और पुआल से बना हुआ है स्कूल:
स्कूल भी ऐसा की देखते बनती है. 10 बाई 8 का यह स्कूल चारों तरफ लकड़ी और ऊपर पुआल से ढंका हुआ है. पुआल के ऊपर पॉलिथिन लगा है, वह भी फटा हुआ. बारिश होने पर तत्काल स्कूल बंद करना पड़ता है. बावजूद पहली बार यहां के बच्चे पढ़ रहे हैं. गांव में इससे पहले आज तक कोई नहीं पढ़ा था.
तीन गांव के 62 बच्चे पढ़ते हैं:
टीन के डब्बे पर शिक्षक फ्रांसिस मुंडा बैठे हैं. जमीन पर पॉलिथिन बिछा एक साथ बच्चे बैठे हैं. यह किसी कक्षा में नहीं, बस पढ़ रहे हैं. बीते 6 महीने की पढ़ाई में ये अक्षर पहचान रहे हैं. जन गण मन याद कर चुके हैं. पहाड़ा सीख चुके हैं. यहां आसपास के तीन गांवों के 62 बच्चे पढ़ रहे हैं.
खुद 10वीं पास हैं फ्रांसिस:
शिक्षक फ्रांसिस मुंडा खुद मात्र 10वीं पास हैं. बताते हैं, मैं हर दिन सुबह 8 बजे घर से पैदल निकलता हूं. पहाड़ों-जंगलों के अंदर-अंदर 10 किलोमीटर से ज्यादा का सफर पैदल तय करता हूं. खदान वाले ट्रकों के लिए रास्ते तो बने हैं, लेकिन वह इतनी ऊंचाई वाले हैं, लिहाजा साइकिल से आना संभव नहीं.
इसलिए जंगल के बीचोबीच पैदल चलकर ही पहुंचता हूं. दो जगहों पर लगभग एक किलोमीटर का चढ़ान है, ये रास्ता मुझे सबसे अधिक थका देता है. दोपहर 3 बजे स्कूल से निकलता हूं, फिर पैदल ही 5 बजे घर पहुंचता हूं. ऐसा वह पिछले 6 महीने से लगातार कर रहे हैं.
ना पानी हैं ना बिजली:
गांव में एक भी चापाकल नहीं, बिजली भी नहीं है. लोग गड्ढे में जमा पानी से नहाते हैं, वहीं कपड़ा धोते हैं और वही पानी पीते भी हैं. यूँ कहें तो एक भी सरकारी योजनाओं का लाभ यहां के लोगों तक नहीं पहुंची है.
गांव के लोगों का मुख्य पेशा खेती और केंदू पत्ता तोड़ कर उसे बेचना है. साथ ही जंगली जड़ी-बूटी भी बेचते हैं. हां अभी के मौसम में चींटी और उसकी चटनी भी बेच रहे हैं.
क्या कहती है छात्राएं:
स्कूल की छात्रा नंदी गगराई कहती हैं कि उसके माता-पिता दोनों ही जंगल में पत्ते तोड़ने का काम करते हैं. स्कूल में मंगलवार और शनिवार को बच्चों की उपस्थिति थोड़ी कम होती है. क्योंकि अधिकतर बच्चे अपने माता-पिता के साथ जंगल में केंदू पत्ता तोड़ने और फिर उसे बेचने चले जाते हैं. कमाई का एकमात्र जरिया यही है.
बच्चों को कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय पहुंचने लायक बनाना ही ध्येय:
फ्रांसिस कहते हैं वह बच्चों को इतना पढ़ाना चाहते हैं कि वह कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय पहुंचने लायक बन जाएं. वहीं लड़कों को मिडिल और हाई स्कूल तक पहुंचाना चाहते हैं.
बीते साल 15 नवंबर को बिरसा मुंडा जयंती पर इन बच्चों के बीच प्रतियोगिता कराई गई थी लेकिन पैसे के अभाव में आज तक पुरस्कार नहीं दिया जा सका है. उन्हें इसका मलाल है.
हॉस्पिटल नहीं, जंगल के रास्ते में ही हो जाती है बच्चों की डिलीवरी
इस गांव में पहुंचना कितना मुश्किल है इसे ऐसे समझिये. गांव के राजा सुंडी अपनी पत्नी पुतली सुंडी के साथ एक दिन पहाड़ी चढ़ कर राशन लाने बाजार जा रहे थे. बीच रास्ते में गर्भवती पत्नी को दर्द हुआ.
वह आगे नहीं बढ़ पाई. पति ने अपना कपड़ा खोला और पत्नी को जंगल में ही लिटा दिया. सुनसान जगंल में कराहती पत्नी ने वहीं बच्चे को जन्म दिया. मंगलवार का दिन था, सो बच्चे का नाम मंगल रख दिया. गांव के सभी बच्चे लगभग इसी तरह पैदा हुए हैं.
गांव वालों की उम्मीदें जगीं: ग्राम प्रधान
इस स्कूल ने गांव वालों की उम्मीदें जग गई है. ग्राम प्रधान विजय अंगरिया कहते हैं, वह खुद तो कभी पढ़ नहीं पाए, बच्चे सुधर जाएंगे. वहीं गीता गगराई कहती हैं, उनके पास तो कपड़ा खरीदने तक की औकात नहीं है. बच्चे पढ़ जाएंगे तो शायद जीवन बदल जाय.
खनन का काम करते हैं फ्रांसिस:
फ्रांसिस मुंडा खुद मेगाहातूबुरू में रहते हैं. यहां स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) आयरन की ओर से खनन का काम करते हैं. वहां से रांगरिंग हर दिन आते हैं, चाहे हालात कैसे भी हो. वह कहते हैं- जंगल में वैसे तो कोई दिक्कत नहीं होती है, बस जानवरों का डर रहता है.
इस 6 महीने में कई बार भालू ने घेरा है लेकिन वह बच-बचाकर किसी तरह स्कूल और फिर वहां से घर पहुंच ही जाते हैं. उनकी इच्छा है कि जिस दिन स्कूल का पक्का भवन बन जाएगा, वह अपने पैसे से गांव वालों को भोज देंगे.