बैजनाथ आनंद,
BNN DESK: भगवान श्री कृष्ण की शांति वार्ता जब व्यर्थ हो गयी, निष्फल हो गयी और महाभारत का महा विध्वंसक युद्ध होना निश्चित हो गया, तब महर्षि वेदव्यास राजमहल में धृतराष्ट्र से मिलने आए और “दिव्य दृष्टि” देने का प्रस्ताव रखते हुए बोले कि राजन ! मैं तुम्हें “दिव्य दृष्टि” देने आया हूं. इससे तुम युद्ध को जीवन्त रूप में देख सकोगे, सत्य का अवलोकन कर सकोगे, सत्य को समझ सकोगे.
सहसा धृतराष्ट्र के मन का पाप साक्षात खड़ा हो गया और उसके सम्भावित परिणाम के बोध से वह प्रकम्पित हो गया कि युद्ध में उसके सारे पुत्र मारे जाएंगे. पाण्डव पुत्र जीवित रहेंगे और विजयी होंगे. ऐसी स्थिति में रक्त रंजित पुत्रों के शव कैसे देख सकूंगा ? मेहंदी लगे हाथों में श्रृंगार किए पुत्र वधुओं को जब नहीं देखा, तो सफेद वस्त्रों में उन्हें शोक मनाते, विलाप करते कैसे देख सकूंगा ? जिन पुत्रों का सुन्दर बचपन नहीं देखा ? उनका क्षत-विक्षत शव कैसे देख सकूंगा ?
यह सोच कर धृतराष्ट्र ने कहा – नहीं ! मुझे “दिव्य दृष्टि” नहीं चाहिए. आप दिव्य दृष्टि मेरे सारथी संजय को दे दीजिए. उसके माध्यम से मैं युद्ध का अवलोकन कर लूंगा.
प्रभु के प्रेमी भक्त, साधक “दिव्य दृष्टि” के लिए तड़पते हैं, तरसते हैं, लेकिन बहुत भाग्यवान भक्त, साधक को ही प्रभु का दर्शन करने के लिए “दिव्य दृष्टि” प्राप्त होती है. यहां धृतराष्ट्र को सहज ही “दिव्य दृष्टि” मिल रही है, तो दिव्य दृष्टि से वह भयभीत हो रहा है, घबरा रहा है. “दिव्य दृष्टि” का महत्व अपात्र नहीं समझ पाता है.