सदानीरा से मैंने एक साथ दो उपदेश ग्रहण किए.
- एक, शत्रु पर विजय पाने के लिए बरसात की उफनती गंगा बन जाना और
- दो, शासन तंत्र चलाने के लिए शरद, हेमंत और शिशिर ऋतुओं वाली उसकी धीरता – गंभीरता ओढ़ लेना.
गंगा के तट पर आबाद मेरी ‘मालिनी’ बचपन से ही मुझे बड़ी प्रिय थी. गंगा की फेनिल लहरों में सपने बुनना और उसकी उड़ती धूल में नहाने में मेरा शौक था. संगी – साथियों के साथ खेलना और खेल-खेल में ही उड़ते परिंदों को जमीन पर मार गिराने में तब बहुत मजा आता था मुझे. मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि जो ‘अंग’ कालक्रम में ‘मालिनी’ का अधीश्वर बना, उसके फौलादी जिस्म के निर्माण में माता सुदेशना का दूध, पिता बलि की वीरता- दान वीरता, ‘मालिनी’ का आशीर्वाद और अविरल बहती गंगा की धार के प्यार का महत्वपूर्ण योगदान रहा.
मां सुदेशना मुझे दुलारती नहीं तो मेरे हृदय अंकुरित नहीं होता. पिता का वीर और बलिदानी रक्त मेरी धमनियों में दौड़ता नहीं तो विश्व विजय की कामना मेरे अंदर जागृत होती कि नहीं, कहना मुश्किल है. ‘मालिनी’ बार-बार अपनी धूल से नहलाती नहीं तो यह नन्हा अंग ‘अंगराज’ बन पाता भी कि नहीं, मैं नहीं कह सकता. और, अंत में सदानीरा गंगा, जिस के अविरल प्रवाह ने मुझे महर्षि चार्वाक की प्रेरक वाणी- ‘चरैवेति चरैवेति’ – से आप्लावित कर सदैव चलते रहने… आगे और आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा से अभिभूत किया. तब कहीं जाकर तुम्हारा यह ‘अंग’ अंगेश्वर बन सका . लिहाज गंगा के प्रति बार-बार आभार प्रकट करना मैं अपना प्रथम और पुनीत कर्तव्य इसलिए भी मानता हूं कि उस सदानीरा से मैंने एक साथ दो उपदेश ग्रहण किए. एक, शत्रु पर विजय पाने के लिए बरसात की उफनती गंगा बन जाना और दो, शासन तंत्र चलाने के लिए शरद, हेमंत और शिशिर ऋतुओं वाली उसकी धीरता – गंभीरता ओढ़ लेना.
सच कहूं तो अपने वंश के रक्त, जन्मभूमि के अतीत, वर्तमान और देवों की नदी के संदेशों को आत्मसात कर तुम्हारा यह ‘अंग’ जब सिंहासनारूढ़ हुआ तब पहली बार न केवल अंगभूमि ने नाम धारण किया, खुशियों के फव्वारे भी सर्वत्र उड़ने लगे. उस खुशी के मूल में मेरी ताजपोशी तो थी ही, उसमें भी बड़ी वजह एक नई आशा का जन्म लेना भी थी, क्योंकि अब यह नाव नामधारी ‘अंग’ एक नई यात्रा का आगाज करने वाला था. एक ऐसी यात्रा, जिसका लक्ष्य समस्त भूमि पर अंग का सफेद परचम लहरा देना था . लेकिन उस यात्रा के हर पड़ाव पर व्यवधान भी खड़े होने वाले थे. तलवारों की टकराहट भी गूंजने वाली थी और तलवारें टकराने का अर्थ ही है माटी का रक्त स्नान करना. लेकिन मुझे तो सर्वत्र अंग की सत्ता स्थापित करनी थी. पड़ोसियों को इसकी महत्ता बतानी थी.
इसी उद्देश्य के साथ मैं बढ़ा चला अपने विजय अभियान पर. जिन्होंने मेरे शांति ध्वज की खामोश भाषा को समझ कर समर्पण किया, वे हमारे काफिले में शामिल हो गए, लेकिन जिन्होंने विरोध की जुर्रत की, म्यान में चुपचाप लेटी तलवार झटके में ही लपलपा उठी. फिर तो वह रक्त स्नान के बाद ही वापस में म्यान में घुसी. मुझे कहने में कोई हिचक नहीं है कि इस क्रम में खून से सनी ऐसी ढेरों घटनाएं अंजाम पा गयी, जिन्हें वास्तव में मैं देना नहीं चाहता था. लेकिन नहीं करता तो ‘अंग’ की चर्चा आज कौन करता ? इतिहास बार-बार अपना तीसरा नेत्र नहीं खोलता तो अंगभूमि का नाम लेने वाला भी आज कोई होता क्या ?
क्रमशः….
प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह( तिलकामांझी यूनिवर्सिटी बिहार)
द्वारा रचित (मैं ‘अंग’ हूं)