रांची: ‘खतियान’ झारखंड की सियासत में एक अल्फास जिसे सुनने के बाद बड़ी आबादी की पेशानी पर बल पड़ जाते हैं. जो मूलवासी और आदिवासी हैं उन्हें जल-जंगल-जमीन की जंग याद आ जाती है, तो जो 1932 के बाद झारखंड पहुंचे उन्हें अपनी जमीन खिसकने की चिंता सताने लगती है.
झारखंड में नई सरकार बनने के बाद सत्ताधारी दल के नेताओं के द्वारा स्थानीय नीति को लेकर जो बयानबाजियां हो रही और भाजपा खासतौर से निशिकांत दूबे द्वारा सोशल मीडिया पर जो पोस्ट डाला जा रहा है उससे मामला तनावपूर्ण होता दिख रहा है.
गोड्डा से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने संथलों के संताल परगना में आने की तारीख 1810 बता कर कई सवाल खड़े किए हैं. सवाल यहां ये है कि आखिर झारखंड में जमीन की जंग इतनी गहरी क्यों हैं और आखिर ‘खतियान’ है क्या.
दरअसल, अंग्रेजों के जमाने में या उपनिवेशवादी काल में पूरे देश में लैंड सर्वे हुआ. संयुक्त बिहार में भी भू सर्वेक्षण किया गया. मगर संयुक्त बिहार के आज के झारखंड वाले हिस्से में जो सर्वे किया गया वो अपने आप में अनोखा था. झारखंड में जो भू-सर्वेक्षण किया गया उसमें ना सिर्फ जमीन के आकार-प्रकार का रिकॉर्ड दर्ज किया गया, बल्कि उस जमीन पर रहने वाले लोगों के आचार-विचार और उनके अधिकारों का उल्लेख किया गया.
बिरसा मुंडा के आंदोलन के बाद 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम यानी सीएनटी एक्ट बना. इसी एक्ट में ‘मुंडारी खूंटकट्टीदार’ का प्रावधान किया गया. इसी प्रावधान में ये व्यवस्था की गई जिसके जरिए आदिवासियों की जमीन को गैर आदिवासियों के हाथों में जाने से रोका गया.
आज भी ‘खतियान’ यहां के भूमि अधिकारों का मूल मंत्र या संविधान है. झारखंड में जो पहला लैंड रिकॉर्ड दर्ज किया गया उसे तीन भागों में प्रकाशित किया गया-
1. ‘खेवट’- जिसमें भूमि के हर हिस्से के मालिकाना हक का जिक्र रहता है
2. ‘खतियान’- जिसमें भूमि के मालिकाना हक के साथ-साथ सामुदायिक अधिकारों का रिकॉर्ड दर्ज होता है इसे ‘खतियान’ ‘पार्ट-2’ के नाम से भी जानते हैं .
तीसरा हिस्सा है 3. ‘विलेज नोट’- इसमें हर गांव के सामाजिक आर्थिक संरचनाओं का विश्लेषण किया गया था. प्रमुख की ड्यूटी क्या है, अधिकार क्या है किस जमीन पर पूरे गांव का हक है ये तमाम बातें इसी हिस्से में लिखी गई.
इन तीनों हिस्सों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है ‘खतियान’. जिसे आजादी के बाद से लगातार कमजोर किया जा रहा है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बंगलुरु की सामाजिक मानवविज्ञानी कैरोल उपाध्या ने अपनी शोध में झारखंड में इसे विस्तार से लिखा है.
आजादी से पहले झारखंड में कई बार भूमि का सर्वेक्षण हुआ. रांची जिले की बात करें तो साल 1902-10 के बीच भू-सर्वेक्षण किया गया. 1927-28 के दौरान इसका पुनरीक्षण किया गया. इसे सर्वेक्षण में कई शब्दों का प्रचलन शुआ जो आज तक कायम है. मिसाल के तौर पर ‘गैर-मजरुआ’, ‘गैर मजरुआ आम’ और ‘गैरमजरुआ खास’.
जमीन के उस टुकड़े को ‘गैरमजरुआ खास’ या मालिक कहा गया जिस पर कृषि कार्य नहीं होता था और ‘गैर मजरुआ आम’ भूमि के उस प्रकार को कहा गया जिसका इस्तेमाल सामुदायों या गांवों द्वारा किया जाता था या है.
‘गैर मजरुआ आम’ में कब्रिस्तान, पवित्र पेड़, गांव की सड़कें होती हैं. सर्वेक्षण में झारखंड के हिस्से में सबसे ज्यादा आई गैरकृषि भूमि और जंगल. इसे ही ‘गैरमजरुआ खाता’ कहा गया. इसका अधिकार स्थानीय समुदायों या गांवों के पास होता है. मालिकाना हक जमींदार (जो आजादी के बाद खत्म हो गया) या मुंडारी खूंटकट्टीदार के पास होता था या है.
‘खतियान’ का ‘पार्ट -2’ बहुत महत्वपूर्ण होता है. ‘पार्ट-2’ में ही अलग-अलग समुहों या समुदायों या ग्रामीणों के विशिष्ट अधिकार का जिक्र है. गांव के परंपरागत मुखिया या मुंडा के पास ये अधिकार होता है कि वो जंगल से पेड़, लकड़ी काटने, घर बनाने या खेती करने की इजाजत दे.
झारखंड में जमीन के मालिकाना हक और मूलवासी आदिवासी के हको-हुकूक की बात लैंड सर्वे में दर्ज हैं. ‘खतियान’ ना सिर्फ जमीन के मालिकान हक का दस्तावेज है बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास का दस्तावेज भी है. इसीलिए हर बार खतियान को लेकर इतनी जंग होती है.
अंग्रेजों के सर्वे में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि मूलवासियों की सामाजिक आर्थिक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं हो. मिसाल के तौर पर सर्वे में गैर मजरुआ आम की जमीन का रिकॉर्ड दर्ज हुआ, जिसका इस्तेमाल पूरा गांव करता था चाहे वो खेल का मैदान हो या चारागाह या फिर सामूहिक नृत्य का मैदान.
इस जमीन को उस वक्त ना जमींदार बेच सकता था और ना ही मुंडा खूंटकट्टीदार. इसी तरह कोल्हान में जमीन की लड़ाई और यहां किया गया सर्वे और दिलचस्प है. 1831-1833 कोल विद्रोह के बाद ‘विल्किंसन रुल’ आया.
कोल्हान की भूमि ‘हो’ आदिवासियों के सुरक्षित कर दी गई. ये व्यवस्था निर्धारित की गई की कोल्हान का प्राशासनिक कामकाज हो मुंडा और मानकी के द्वारा कोल्हान के सुपरीटेडेंट करेंगे. इस इलाके में साल 1913-1918 के बीच लैंड सर्वे हुआ और इसी के बाद ‘मुंडा’ और ‘मानकी’ को खेवट में विशेष स्थान मिला. आदिवासियों का जंगल पर हक इसी सर्वे के बाद दिया गया. देश आजाद हुआ.
1950 में बिहार लैंड रिफॉर्म एक्ट आया. इसको लेकर आदिवासियों ने पदर्शन किया. साल 1954 में एक बार इसमें संशोधन किया गया और मुंडारी खूंटकट्टीदारी को इसमें छूट मिल गई. कोल्हान इलाके में 1958-65 के दौरान फिर भू-सर्वेक्षण किया गया लेकिन इस बार भी आदिवासियों द्वारा भारी विरोध किया गया. कई साल तक विरोध के बाद आदिवासी सरकार के इस आश्वासन के बाद नरम पड़े की उनेक मौजूदा अधिकारों का हनन नहीं होगा.
मगर हकीकत ये है की इसके बाद भी आदिवासियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा. जिस जमीन पर पहले मुंडा-मानकी का हक था उस पर सरकार का कब्जा हो गया. ये जमीन जीएम लैंड हो गया. इसे अनाबाद सर्व साधारण कहा जाने लगा. आगे चलकर अनाबाद बिहार सरकार और अब झारखंड सरकार की जमीन हो गई.
अनाबाद बिहार सरकार की जमीन होने का मतलब है कि जिस जमीन पर पहले मुंडा-मानकी का हक था वो सरकार की हो गई अब सरकार चाहे जैसे भी इस्तेमाल कर सकती थी. लैंड बैंक बनाकर झारखंड की पिछली सरकारों ने पूरी तरह से गांवों की आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों को तोड़ दिया.
खतियान को लेकर झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों के भावनात्मक लगाव को समझना जरुरी है. पहली बात तो ये की खतियान सिर्फ जमीन का अधिकार नहीं बल्कि उनकी पूरी सामाजिक व्यवस्था का दस्तावेज है. झारखंडी होने का सबूत है.