पदमा सहाय,
रांचीः झारखंड विधानसभा चुनाव पूरे उफान पर है. चर्चाओं का बाजार गरम है. अंक गणित का खेल जारी है. जीत के लिए हर दल जोर आजमाइश कर रहे हैं. वायदे भी ऐसे जिससे सूबे की रहबरी खुशहाल हो जाए. पर ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली बात भी इस चुनाव में है. कहा भी जाता है कि जिस मठ में जोगियों की संख्या बढ़ जाती है, वो आपस मे नोंक-झोंक कर ही मठ को नष्ट कर देते है. बस यही हो रहा झारखंड की राजनीति में. कल तक साथ-साथ थे, आज राहें जुदा-जुदा. साथ रहने वाले अब आमने सामने भी हैं. शनिवार को 20 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव होगा. इसमें एक दूसर का साथ नहीं छोड़ने की कसम खाने वाले आज एक दूसरे पर वार पर वार कर रहे हैं.
झारखंड की राजनीति नयी बयार में बहने को है तैयार
झारखंड की राजनीति एक नए बयार में बहने को तैयार है. धरती आबा की भूमि आज अपनी अनदेखी अपनी बदहाल हालात पर आखिर किसको कोसे. 2000 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने झारखंड को अलग राज्य का दर्जा दिया तब एक नई उम्मीद एक नए सवेरे के साथ झारखंड वासियों ने इसका स्वागत किया. पर समय के साथ बदलती सियासी दांवपेंचों ने झारखंड को वो सब प्राप्त नहीं होने दिया जिसका वो असल हकदार था. वन संपदा धन संपदा खनिज संपदा से भरपूर होकर भी झारखंड दूसरे राज्यो के मुकाबले कमतर है. राज्य की उपेक्षा में अगर किसी का सबसे बड़ा सहयोग रहा है तो वो है यहां की राजनीति. जी हां यहां की राजनीति और गठबंधन की सरकारों ने झारखंड को हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया है.
मुद्दे गौण, खेल कुर्सी का
गरीबी बेरोजगारी कुपोषण स्वास्थ्य अशिक्षा ह्यूमन ट्रैफिकिंग जैसे तमाम ज्वलंत मुद्दे शांत पड़े है और इंसबके बीच जो गर्म मुद्दा है वो सिरफ सत्ता का है केवल कुर्सी का है. सरकारें आई सरकार गयी पर इन सबमे जो स्थिर बनी रहीं वो थी झारखंड कि स्थिति और इसकी दुर्दशा. एनडीए का धड़ा अलग-थलग है. ईगो के कारण दोनों की राहें जुदा –जुदा हो गई हैं. फिर भी सियासी ड्रामे को फ्रेंडली फाइट का नाम गम भुलाने की कोशिश की जा रही है. आजसू के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है. जबकि बीजेपी का मिशन 65 प्लस. आजसू सुप्रीमो के बदले सुर के पीछे आंकड़ों के गणित का भी झोल झाल है. 2014 में आठ सीट पर लड़ कर पांच सीटों पर विजय पानेवाले आजसू पार्टी अपना नाम बड़ी पार्टी में शामिल करना चाहती है. साथ ही बीजेपी का एक चेहरा बन कर नही रहना चाहती. आजसू अंधेरे में तीर चलाने का खेल खेलना चाहती है. लग गया तो तीर नहीं तो तुक्का.
महागठबंधन का भी फेसिया हो गया चेंज
इस ड्रामे से कांग्रेस और उसके सहयोगी दल भी अछूते नहीं रहे. महागठबंधन में जहां सभी विपक्षी पार्टियों के एक होने की बात थी. वहीं सियासी तवे पर सबने अपनी अलग रोटी सेकनी शुरू कर दी नतीजा ये रहा कि इस महागठबंधन का भी फेसिया चेंज हो गया. झाविमो की राह जुदा हो गई. बहरहाल इस चुनावी कुरुक्षेत्र में सब कूद चुके है. अपने जुबानी अस्त्र शस्त्रों से एक दूसरे को घायल भी कर रहे पर सवाल अब भी वही है कि इतने सालों में झारखंड को क्या मिला. झारखंड और इसकी समस्याओं को 19 वर्षों से अनदेखा कर पार्टियां अपनी रोटी सेंकती रही. अब इस विधानसभा चुनाव से झारखंड की राजनीति करवट ले रही. अपने पारंपरिक अंदाज से हट कर छोटी पार्टियां खुद को बड़ी पार्टी में रूपांतरित करती नजर आ रही. ऐसे में ये देखना रोमांचक होगा कि यहां की जनता किसको स्वीकारती है और किसे नकारती है.