विशेष संवाददाता, राजेश तिवारी
पत्रकारिता की दो धारा है. एक मिशन है और इसे पत्रकारिता कहते हैं. दूसरे को पक्षकारिता कहा जाता है. पत्रकारिता करने वाले पत्रकार मुफलिसी में जीते हैं. अफसर एवं राजनेता के निशाने पर होते हैं. इसके विपरीत पक्षकारिता करने वाले हर वर्ग के प्रिय होते हैं. अफसर और राजनेता उन्हें खूब पसंद करते हैं. ऐसे लोग उनकी गोद में बैठकर मलाई खाते हैं.
ऐसा कहा जाता है कि पत्रकार कभी पक्षकार बन नहीं सकते हैं. पक्षकारों को पत्रकारिता से कोई सरोकार नहीं है. इस स्थिति के मद्देनजर लोग पक्षकारिता को लोकतंत्र के पांचवे स्तम्भ का दर्जा दिये जाने की वकालत भी करते हैं, ताकि वे खुलकर के साथ नेता, अफसरों की चापलूसी एवं दलाली कर सकें. आम जनता को खुलकर लूट सकें.
जिन्हें ये मालूम नहीं कि पत्रकारिता क्या है? इसकी जानकारी नहीं कि पत्रकारिता क्यों और किस लिए की जाती है? इसका भी पता नहीं है कि समाचार कितने प्रकार के होते हैं? उनको इसकी जानकारी भी नहीं होगी कि भारत में पत्रकारिता का जन्म कब, कहां और कैसे हुआ? ऐसे लोग पत्रकार बन गये हैं. वे पत्रकारिता की गरिमा को सरेबाजार, अफसर, राजनेताओं के सामने नीलाम कर रहे हैं.
पत्रकारिता का एक दौर ऐसा भी था जब प्रेसवार्ता में अफसर और राजनेता पत्रकारों के आने का बेसब्री से इन्तजार करते थे. आज स्थिति विपरीत हो गई है. प्रेसवार्ता में अफसर एवं राजनेताओं के आने का इंतजार पत्रकारों को रहता है।.
वक़्त बहुत बदला गया है. हालांकि पत्रकारिता के सिद्धांत और उसूल नहीं बदले हैं. आज भी पत्रकारिता का खौफ भ्रष्टाचारियों को रहता है. हालांकि वक्तह के साथ कुछ दलाल पत्रकारों ने पत्रकारिता को पक्षकारिता में बदल दिया है, जिसका खामियाजा पूरी पत्रकार बिरादरी को भुगतना पड़ रहा है.
पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का दर्जा दिया गया है. दरअसल, लोकतंत्र के सुचारू संचालन के लिए न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका का गठन किया गया. इनकी गलत कार्य प्रणाली पर अंकुश लगाने और इनको आईना दिखाने के लिए पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का दर्जा दिया गया. पत्रकारिता से जुड़ने के लिए कोई मानक निर्धारित नहीं होने के कारण इसकी जानकारी नहीं रखने वाले लोग पत्रकारिता से जुड़ गये हैं. पत्रकारिता को छवि को धूमिल कर रहे हैं. पत्रकारिता को पक्षकारिता में तब्दील करने का काम भी किया है. अब स्थिति ऐसी हो गई कि खुद को पत्रकार बताने पर पत्रकारों को शर्म महसूस होने लगी है. दल्ले पक्षकार खुद को शान से पत्रकार बताते हैं जैसे वो कोई ऊंचे ओहदे में हो.
एक पत्रकार अपनी अहमियत को अच्छी तरह जानता है. सरकार पांच साल बाद बदल जाती है. सत्ता जाते ही नेता पैदल हो जाते हैं. विधायक, सांसद का पद जनता की दी गई भीख होती है. जनता जब चाहे उस पद को छीन सकती है, लेकिन पत्रकार का पद किसी के रहमोकरम का नहीं है, जो उसे छीनने की गुस्ताखी कर सके.
आइये हम सभी पत्रकार मिलकर पत्रकारिता की गरिमा को बरकरार रखने की एक पहल करें. पत्रकार रूपी पक्षकारों, दल्लों की नाक में नकेल डालने का का अभियान चलायें, ताकि पत्रकारिता का पुराना दौर वापस लौट सकें.