रामगढ़ राजा की पार्टी के सात सांसद और 50 विधायकों को मिली थी जीत
रांची: बिहार विधानसभा चुनाव 2020 को लेकर राजनीतिक सरगर्मी चरम पर है. एकीकृत बिहार में आजादी के तुरंत बाद जब पूरे देश में कांग्रेस की तूती बोलती थी और कांग्रेस विरोधी उम्मीदवारों की हालत पस्त हो जाती थी, उस वक्त भी छोटानागपुर के रामगढ़ राज के अंतिम राजा कामाख्या नारायण सिंह ने 1952, 1957, 1962 और 1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी. 1962 के विधानसभा चुनाव में तो उनकी पार्टी के 7 सांसद और 50 विधायक हो गये. सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के कारण उन्हें बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा भी मिला. जबकि बिहार में 1967 से 68 तक पहली बाद विपक्ष की सरकार राजा रामगढ़ के सहयोग से ही बन पायी थी. उनके परिवार के ही भाई कुंवर बसंत नारायण सिंह, माताश्री शशांक मंजरी देवी, धर्मपत्नी ललिता राजलक्ष्मी, पुत्र टिकैत इंद्र जितेंद्र नारायण सिंह कई बार लोकसभा सदस्य और विधायक बने.
कांग्रेस के दिग्गज नेताओं का कैंप करना रहता था बेअसर
राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह, कुंवर बसंत नारायण सिंह, ललिता राजलक्ष्मी बिहार सरकार में मंत्री बने. उनके सहयोग से ही कैलाशपति मिश्र (हजारीबाग) और गोपीनाथ सिंह (रंका-पलामू) बिहार सरकार में मंत्री बन गये थे. पुराने हजारीबाग जिले (यानी चतरा, हजारीबाग, कोडरमा, गिरिडीह, बोकारो और रामगढ़) में तो जिस किसी को भी इन्होंने चुनाव खड़ा किया, वे जीतते रहे. आजादी के पूर्व और पश्चात जिस समय कांग्रेस की तूती बोलती थी, उनके दिग्गज नेता राजाबहादुर कामाख्या नारायण सिंह के विरूद्ध कैम्प करते , फिर भी ये चुनाव जीत जाते थे. उनका प्रभाव इतना था कि उनकी पार्टी के उम्मीदवार धनबाद सहित आरा-छपरा से भी चुनाव जीतते थे.
‘‘राइट टू रिकॉल’’ की पहली बार वकालत
1946 से सक्रिय राजनीति में कदम रखने वाले राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह ने अपनी पार्टी छोटानागपुर संथाल परगना पार्टी की नीतियों की घोषणा देश में होने वाले प्रथम आम चुनाव के पूर्व 1951 में हजारीबाग की एक बड़ा सभा में की. उन्होंने स्पष्ट किया कि जिस तरह सरकार गरीबों पर करों का बोझ बढ़ाती जा रही है, दुर्भाग्यपूर्ण है. अगर सरकार को पैसे की जरूरत है, तो उसे हमारे जैसे लोगों से भारी-भरकम टैक्स लेना चाहिए. जनता को हम वह अधिकार देना चाहते हैं, जिसके बल पर उनकी पार्टी के विधायकों विधानसभा सदस्यता समाप्त की जा सके. कामाख्या नारायण सिंह ने शायद पहली बार ‘राइट टू रिकॉल’ का अधिकार जनता को देने की बात की थी.
नेहरू ने जमींदारों की पार्टी करार दिया
चुनाव अभियान की शुरुआत जब 1952 में हुई, तो पंडित जवाहर लाल नेहरू ने रांची के मोरहाबादी मैदान में अपने भाषण में कामाख्या बाबू की पार्टी को जमींदारों की पार्टी करार दिया और जनता को इस पार्टी को वोट देने से मना किया. पर उस चुनाव में भी जनता पार्टी के 11 उम्मीदवार जीतने में सफल रहे थे. कमोवेश यही स्थिति 1957 के विधानसभा चुनाव में थी. कांग्रेस को सरबार बनाने में कोई परेशानी नहीं हुई, पर 1962 का चुनाव आते-आते कांग्रेस आंतरिक कलह से घिर गयी. इसका सर्वाधिक लाभ कामाख्या नारायण सिंह की पार्टी को मिला, जो तब राजगोपालचारी की स्वतंत्र पार्टी के बैनर तले चुनाव मैदान में थे. इस चुनाव में बिहार में स्वतंत्र पार्टी के हिस्से 50 सीटें आयी, लेकिन तब भी कांग्रेस 182 सीटों के साथ विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनी हुई थी.
जनता पार्टी का पुनर्जन्म
मुख्य विपक्षी दल की भूमिका मिल जाने के बावजूद कामाख्या नारायण सिंह स्वतंत्र पार्टी में अपनी हैसियत कायम नहीं रखे. आखिरकार स्वतंत्र पार्टी की बिहार इकाई पर अनुशासनिक कार्रवाई की तलवार चली और पार्टी अंततः भंग कर दी गयी. तक कामाख्या नारायण सिंह ने पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को चेताया और अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए जोड़-तोड़ प्रारंभ कर दिया. कामाख्या नारायण सिंह के भावी कदम को भांपकर उनके प्रबल प्रतिद्वंदी कृष्ण बल्लभ सहाय ने भी पैंतरेबाजी प्रारंभ कर दी, ताकि उन्हें कांग्रेस में शामिल होने से रोका जा सके.
केबी सहाय ने मुख्यमंत्री पद की हैसियत का पूरा इस्तेमाल कर कामाख्या नारायण सिंह के 11 विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर लिया. इस घटना से कामाख्या नारायण सिंह काफी आहत हुए. उन्होंने अपनी पुरानी पार्टी जनता पार्टी को पुनर्जीवित कर ही लिया. लेकिन दिल्ली जाकर उन्होंने कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष कामराज से भेंट की और अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कराने के लिए उन्हें राजी कर लिया. 17 मई 1966 को जनता पार्टी के 38 विधायक, चार विधानपरिषद सदस्य और छह लोकसभा सदस्य तथा एक राज्यसभा सदस्य कांग्रेस में शामिल हो गये. लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री केबी सहाय से तनातनी के बीच कामाख्या नारायण सिंह अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस पार्टी छोड़ कर महामाया प्रसाद की जनक्रांति दल में शामिल हो गये.
पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार के गठन में निभायी महत्वपूर्ण भूमिका
1967 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को अपने अंतर्कलह के कारण मात्र 128 सीटें मिली और पहली बार महामाया प्रसाद की गैर कांग्रेसी सरकार बिहार में बनी. इस सरकार में कामाख्या नारायण सिंह और उनके भाई बसंत नारायण सिंह कई समर्थक मंत्री बने. बाद में भोला पासवान शास्त्री मंत्रिमंडल में भी कामाख्या नारायण सिंह लोक निर्माण मंत्री बने. उन्होंने शास्त्री सरकार को चेतावनी दी कि उनकी कुछ शर्ते नहीं मानी गयी, तो वह त्यागपत्र दे देंगे. उस वक्त कामाख्या नारायण सिंह के 17 विधायक थे. अपने समर्थक विधायकों के साथ 25 जून 1968 को उन्होंने सरकार से समर्थन वापसी का पत्र राज्यपाल नित्यानंद कानूनगो को भेज दिया, जिसके कारण शास्त्री सरकार का पतन हो गया. 1968 में बिहार को पहली बार राष्ट्रपति शासन का मुंह देखना पड़ा था.