मजदूर का दर्द
सुख चैन से रहते जो हमेशा कोसों दूर।
पेट कीखातिर काम किया यही कसूर
जख्मों को झेलना बन गयाउनका दस्तूर
दो निवालों को हो गयेअब सभी मजबूर।
नेता सब सियासत के नशे में हो रहे चूर।
दर्द से उन्हें क्या लेना बना रहे चेहरे पर नूर।
बेबसी उनको दिखती नहीं बने तुम क्रूर
सपने साकार करेंगे हम सब अपने पूर।
आत्मा छलनी हुई शरीर भी चकनाचूर।
ईश्वर से मजदूर मौत मांग रहेअब भरपूर।
किसी की हमदर्दियों का थाल भीनहीं मंजूर।
अब तो मजदूरों पर सियासत हो रही हजूर।
दर्द और चीत्कार की आहट आती जरुर
हर मोड़ पर पिसता रहा गरीब का गरुर ।।
डॉ रेखा जैन शिकोहाबाद