बिहार: पूरी दुनिया में फैले कोरोना वायरस के कोहराम के बीच बिहार में एक और खतरा सिर उठाये हुए है. यह पुराना खतरा है जो हर साल सैकड़ों बच्चों की जान ले लेता है.
मगर इस साल कोरोना की दहशत इतनी है कि यह पुराना, जाना-पहचाना खतरा लोगों की ध्यान तक नहीं खींच पा रहा. इस सूचना के बावजूद कि इस साल भी इसका मौसम शुरू हो चुका है और पिछले एक सप्ताह में यह तीन बच्चों की जान ले चुका है.
चमकी बुखार को मेडिकल साइंस एईएस यानी एक्यूट इम्यूनो सिंड्रोम कहता है. पिछले साल इस बीमारी से बिहार के मुजफ्फरपुर और आसपास के जिलों के 185 बच्चों की मौत हो गई थी और 615 से अधिक बच्चे जगह-जगह बीमार पड़े थे. जो बच्चे मारे गए, सो तो मर ही गए, जो बचे हैं उनमें से भी एक तिहाई अभी अलग-अलग किस्म की सेहत संबंधी परेशानियों से जूझ रहे हैं.
ऐसी आशंका है कि कोरोना संक्रमण, लॉकडाउन और दूसरी तमाम वैश्विक मुसीबतों का सामना कर रहे बिहार को इस साल यह बीमारी कुछ और ही परेशान कर सकती है.
दरअसल, पिछले साल तक जब बच्चे बीमार पड़ते थे, उनके आस पड़ोस के लोग, ऑटो वाले या अन्य परिचित उन्हें अस्पताल पहुंचा देते थे. जहां डॉक्टरों की भरपूर कोशिश रहती थी कि उनकी जान बचाई जाए. क्योंकि तब स्थानीय चिकित्सकों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी यही होती थी, चमकी बुखार से निबटना.
इस साल तो संक्रमण के खतरे और लॉकडाउन की सीमाओं के बीच कोई इन बच्चों की मदद के लिए सहज तैयार नहीं होने वाला है. स्वास्थ्य विभाग की भी पहली प्राथमिकता कोरोना वायरस है. फिर उनकी मदद कौन करेगा.
पिछले साल के अनुभव और जमीनी सर्वेक्षण से यही बात समझ में आई है कि चमकी बुखार से पीड़ित होने वाले बच्चे ज्यादातर गरीब और वंचित समुदाय के होते हैं. सेंटर फॉर रिसर्च एंड डायलांग द्वारा 227 पीड़ित बच्चों के परिवार के बीच कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक इनमें से 97.8 फीसदी परिवार की मासिक आमदनी 10 हजार रुपये से कम थी और 96.5 फीसदी बच्चे दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित थे.
इनमें से ज्यादातर बच्चों के कुपोषित होने की बात कही जाती है. जाहिर सी बात है कि ऐसे परिवार इस गंभीर बीमारी का मुकाबला करने में अकेले सक्षम नहीं हो पाते, इन्हें सरकार और समाज दोनों का सहयोग चाहिए. जबकि इस बार दोनों सहयोग कितना मिल पायेगा, कहना मुश्किल है.