नई दिल्ली: “बंगाल के एक छोटे से गांव में दीपक की रोशनी से दिल्ली की जगमगाती रोशनी तक की इस यात्रा के दौरान मैंने विशाल और कुछ हद तक अविश्वसनीय बदलाव देखे हैं।” देश के 13वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद अपने भाषण में ये उद्गार प्रणब मुखर्जी ने व्यक्त किए थे.
उन्होंने कहा, उस समय मैं बच्चा था, जब बंगाल में अकाल ने लाखों लोगों को मार डाला था. वह पीड़ा और दुख मैं भूला नहीं हूं. स्कूल जाने के लिए अक्सर नदी तैरकर पार करने वाले प्रणब ने जमीन से उठकर कई मुकाम हासिल किए और आज अंतत: देश के सर्वोच्च नागरिक बन गए.
सत्ता के गलियारों में उन्हें संकटमोचक कहा जाता था. प्रशासक और दलों की सीमा के पार अपनी स्वीकार्यता के लिए वह मशहूर रहे. वह पहली बार 1969 में राज्यसभा के लिए चुने गए. एक बार राज्यसभा की ओर गए, तो कई वर्षों तक जनता के बीच जाकर चुनाव नहीं लड़ा
. सियासी जिंदगी में करीब 35 साल बाद उन्होंने लोकसभा का रुख किया. 2004 में वह पहली बार पश्चिम बंगाल के जंगीपुर संसदीय क्षेत्र से चुने गए। 2009 में भी वह लोकसभा पहुंचे.
बीते 26 जून को वित्तमंत्री पद से प्रणब के इस्तीफा देने के तत्काल बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें पत्र लिखकर सरकार में उनके योगदान के लिए आभार जताया और कहा कि उनकी कमी सरकार में हमेशा महसूस की जाएगी. सरकार के मंत्रियों ने भी उनकी कमी खलने की बात कही. प्रणब प्रधानमंत्री बनने से कई बार चूके, लेकिन इस महत्वपूर्ण पद पर न होते हुए भी संकट के समय सभी लोग उनकी ओर ही देखते थे.
80 के दशक में प्रधानमंत्री पद की हसरत का इजहार करने के बाद उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाई। बाद में वह फिर से कांग्रेस में आए और सियासी बुलंदियों को छूते चले गए. अर्थव्यवस्था से लेकर विदेश मामलों पर पैनी पकड़ रखने वाले प्रणब बाबू ने सरकार में रहते हुए कमरतोड़ मेहनत की और आज वह देर रात तक अपने काम में व्यस्त रहते हैं.
राजनीति के गलियारों में अपने फन का लोहा मनवाने के बाद प्रणब अब देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन हैं
. जाहिर है सरकार और राजनीति में उनके 45 साल के अनुभव का कोई सानी नहीं है. भले ही वह एक स्थापित वकील न रहे हों, लेकिन संविधान, अर्थव्यवस्था और विदेशी संबंधों की अपनी समझ और पकड़ का लोहा उन्होंने बार-बार मनवाया.
प्रणब सियासत की हर करवट को बखूबी समझते रहे हैं. यही वजह रही कि जब भी उनकी पार्टी और मौजूदा यूपीए सरकार पर मुसीबत आई, तो वह सबसे आगे नजर आए. कई बार तो ऐसा लगा कि सरकार की हर मर्ज की दवा प्रणब बाबू ही हैं. प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने 1991 में उन्हें विदेशमंत्री बनाने के साथ ही योजना आयोग का उपाध्यक्ष का पद दिया.
मनमोहन की सरकार में वह रक्षामंत्री, विदेशमंत्री और वित्तमंत्री के पदों पर रहे. प्रणब के पिता किंकर मुखर्जी भी कांग्रेस के नेता हुआ करते थे. कुछ वक्त के लिए प्रणह ने वकालत भी की और इसके साथ ही पत्रकारिता एवं शिक्षा क्षेत्र में भी कुछ वक्त बिताया
इसके बाद उनका सियासी सफर शुरू हुहु.