उत्तर प्रदेश: अयोध्या के करीब पांच सौ साल पुराने विवाद में 206 साल के बाद फैसला सुना दिया गया है. इन बीते वर्षों की तारीखों के आइने में उच्चतम न्यायालय ने आज इस पर अपना ऐतिहासिक फैसला सुना दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने विवादित जमीन को रामलला की मानी है. वहीं मुस्लिम पक्ष को पांच एकड़ जमीन दी जाएगी. मुस्लिम पक्ष के वकील ने प्रभु श्री राम को इमाने हिंद का दर्जा दिया है. वहीं सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि वह तीन महीने के अंदर ट्रस्ट बनाए जो कि राम मंदिर निर्माण को लेकर नियम बनाएगा. वहीं कोर्ट ने सरकार से कहा है कि वह निर्मोही अखाड़े को भी ट्रस्ट में जगह दे.
बता दें कि इससे पहले हाईकोर्ट ने इस मामले में तीन पक्षकार मानें थे. वहीं सुप्रीम कोर्ट ने दो पक्षकार माने, यानी कि निर्मोही अखाड़े के दावे को खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चबूतरा-सीता रसोई से मंदिर होने की पुष्टि होती है. निर्मोही अखाड़े को हाईकोर्ट से हिस्सा मिला था, उसे खारिज कर दिया गया. कोर्ट ने मानाः नमाज पढ़ने और हिंदू पूजा के भी सबूत मिले. सु्प्रीम कोर्ट ने कहा कि 1856 से पहले हिंदू भी अंदर पूजा करते थे, रोकने पर बाहर चबूतरे पर पूजा करने लगे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अंदरुनी हिस्सों में मुस्लिमों की नमाज बंद होने का कोई सबूत नहीं मिला है. निर्मोही अखाड़े के दावे को खारिज कर दिया है, अखाड़ा यहां सेवा करना चाहता था. एएसआई की खुदाई में जो चीजें निकलीं है, उसे सुप्रीम कोर्ट ने सबूत मांगा. हाईकोर्ट के आदेश में एएसआई ने किया था खुदाई का काम. कोर्ट ने कहा कि मस्जिद खाली जगह पर नहीं बनी थी. बाबरी मस्जिद के नीचे विशाल रचना थी, जिसे खारिज नहीं किया जा सकता है. ये कलाकृतियां इस्लामिक रचना नहीं हैं. विवादित ढांचे में पुराने पत्थरों का इस्तेमाल किया गया. एएसआई ये साबित नहीं कर पाया कि मंदिर तोड़कर ही मस्जिद बनाई गई.
गौरतलब है कि अयोध्या में राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक को लेकर चल रहा विवाद करीब 500 साल पुराना है. माना जाता है कि इस विवाद की शुरुआत 1528 में तब हुई थी जब मुगल शासक बाबर ने राम मंदिर को गिराकर वहां मस्जिद का निर्माण कराया था. इसी वजह से इसे बाबरी मस्जिद कहा जाने लगा था. विवादित स्थल पर हिंदू और मुस्लिम पक्षकारों में मालिकाना हक का विवाद सबसे पहले 1813 में शुरू हुआ था.
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की संविधान पीठ अब से चंद समय बाद इस मामले में अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया. शीर्ष अदालत ने गत 16 अक्टूबर को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. प्राचीन इतिहास के पन्नों को पलटते हुए, धार्मिक मान्यताओं एवं परम्पराओं तथा पुरातात्विक सवालों पर विचारोत्तोजक बहस के बीच अयोध्या की विवादित जमीन से संबंधित मुकदमे पर 40 दिन तक जिरह होने के बाद इस ऐतिहासिक सुनवाई का उस दिन पटाक्षेप हो गया था और पूरे देश को फैसले का इंतजार था.
भारतीय राजनीति पर तीन दशक से अधिक समय से छाये इस विवाद की सुनवाई के दौरान राम जन्मभूमि पर अपने दावे के पक्ष में जहां रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा, ऑल इंडिया हिन्दू महासभा, जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति एवं गोपाल सिंह विशारद ने दलीलें दी, वहीं सुन्नी वक्फ बोर्ड, हासिम अंसारी (मृत), मोहम्मद सिद्दिकी, मौलाना मेहफुजुरहमान, फारुख अहमद (मृत) और मिसबाहुद्दीन ने विवादित स्थल पर बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक का दावा किया. इस मामले में शीर्ष अदालत की ओर से न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) मोहम्मद इब्राहिम कलीफुल्ला के नेतृत्व में गठित तीन सदस्यीय मध्यस्थता पैनल की ओर से मध्यस्थता असफल रहने की बात बताये जाने के बाद संविधान पीठ ने नियमित सुनवाई की और सभी पक्षों को अपना-अपना पक्ष रखने के लिए पर्याप्त अवसर दिये. हिन्दू पक्ष की ओर से सबसे पहले ‘रामलला विराजमान’ के वकील के एस परासरण ने दलीलें शुरू की थी, जबकि सुनवाई का अंत सुन्नी वक्फ बोर्ड की जिरह से हुआ.
चालीस दिन की सुनवाई के दौरान कई मौके ऐसे आये जब दोनों पक्षों के वकीलों में गर्मागर्म बहस हुई. दरअसल उच्चतम न्यायालय में अयोध्या विवाद की सुनवाई न्यायिक इतिहास की दूसरी सबसे लंबी सुनवाई बन गयी. इससे पहले आधार की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई 38 दिनों तक चली थी जबकि 68 दिनों की सुनवाई के साथ ही केशवानंद भारती मामला पहले पायदान पर बना हुआ है. वर्ष 1973 में ‘केशवानंद भारती बनाम केरल’ के मामले में उच्चतम न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपने संवैधानिक रुख में संशोधन करते हुए कहा था कि संविधान संशोधन के अधिकार पर एकमात्र प्रतिबंध यह है कि इसके माध्यम से संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए.
‘केशवानंद भारती बनाम केरल’ के मामले में 68 दिन तक सुनवाई हुई, यह तर्क-वितर्क 31 अक्टूबर 1972 को शुरू होकर 23 मार्च 1973 को खत्म हुआ था. आधार की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर शीर्ष कोर्ट में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने सुनवाई की थी. इस बेंच में न्यायमूर्ति ए के सीकरी, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति अशोक भूषण शामिल थे. आधार मामले में 38 दिनों तक चली सुनवाई के बाद गत वर्ष 10 मई को फैसला सुरक्षित रख लिया गया था, जबकि इस पर गत वर्ष सितंबर में फैसला सुनाया गया था. इस मामले में विभिन्न सेवाओं में आधार की अनिवार्यता की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी.
मुस्लिम पक्ष ने कहा था कि यदि मस्जिद के लिए बाबर द्वारा इमदाद देने के सबूत नहीं हैं, तो सबूत राम मंदिर के दावेदारों के पास भी नहीं है, सिवाय कहानियों के. मुस्लिम पक्ष की ओर से पेश वकील राजीव धवन ने दलील दी कि 1855 में एक निहंग वहां आया, उसने वहां गुरु गोङ्क्षवद ङ्क्षसह की पूजा की और निशान लगा दिया था. बाद में सारी चीजें हटाई गईं. उसी दौरान बैरागियों ने रातोंरात वहां बाहर एक चबूतरा बना दिया और पूजा करने लगे.
उन्होंने बाबर की इमदाद के संबंध में उक्त बात तब कही थी जब संविधान पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा था कि क्या इस बात का कोई सबूत है कि बाबर ने भी मस्जिद को कोई इमदाद दी हो? धवन ने कहा था कि ब्रिटिश हुकूमत के गवर्नर जनरल और फैजाबाद के डिप्टी कमिश्नर ने भी पहले बाबर के फरमान के मुताबिक मस्जिद की देखभाल और रखरखाव के लिए रेंट फ्री गांव दिए, फिर राजस्व वाले गांव दिए. आर्थिक मदद की वजह से ही दूसरे पक्ष का ‘प्रतिकूल कब्जा’ नहीं हो सका था. सन् 1934 में मस्जिद पर हमले के बाद नुकसान की भरपाई और मस्जिद की साफ-सफाई के लिए मुस्लिमों को मुआवजा भी दिया गया था.
उन्होंने दलील दी थी कि शीर्ष अदालत अनुच्छेद 142 के तहत मिली अपरिहार्य शक्तियों के तहत दोनों ही पक्षों की गतिविधियों को ध्यान में रखकर इस मामले का निपटारा करें. उन्होंने कहा था कि मस्जिद पर जबरन कब्जा किया गया. लोगों को धर्म के नाम पर उकसाया गया, रथयात्रा निकाली गई, लंबित मामले में दबाव बनाया गया. उन्होंने कहा कि मस्जिद ध्वस्त की गई और तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण ङ्क्षसह को अवमानना के चलते एक दिन की जेल भी काटनी पड़ी थी. मुस्लिम पक्ष के वकील ने कहा था कि कोई भी अयोध्या को राम के जन्म स्थान के रूप में अस्वीकार नहीं कर रहा है. यह विवाद बहुत पहले ही सुलझ गया होता अगर यह स्वीकार कर लिया जाता कि राम केंद्रीय गुंबद के नीचे पैदा नहीं हुए थे. हिंदुओं ने जोर देकर कहा है कि राम केंद्रीय गुंबद के नीचे पैदा हुए थे. सटीक जन्म स्थान ही मामले का मूल है. मुस्लिम पक्ष ने हिन्दू पक्ष के इस दावे का खंडन भी किया था कि बाबरी मस्जिद इस्लाम के स्थापित नियमों के खिलाफ थी, साथ ही उसने कहा था कि मोहरहित ‘निर्मोही’ और बैरागी को जमीन से मोह क्यों? मुस्लिम पक्षकार के वकील मोहम्मद निजाम पाशा ने कहा कि बाबरी मस्जिद वैध मस्जिद थी या नहीं, वहां वजू करने की व्यवस्था थी या नहीं, इसे इस्लाम के सिद्धांतों पर परखने की जरूरत नहीं है.
उन्होंने कहा कि सिर्फ यह देखे जाने की जरूरत है कि वहां के लोग इसे मस्जिद मानते थे या नहीं. हिन्दू पक्ष की दलील थी कि बाबरी मस्जिद में वजू करने की कोई जगह नहीं थी. उन्होंने जमाली कमाली मस्जिद, सिद्धि सईद मस्जिद का उदाहरण देते हुए कहा था कि उस मस्जिद में कोई गुम्बद नहीं है, पर जाली लगी हुई है जिसे ‘ट्री ऑफ लाइफ’कहते हैं. यही नहीं वहां पर जो नक्काशी है उसमें पेड़ और फूल बने हुए हैं. हिन्दू पक्ष की यह भी दलील है कि विवादित जमीन की खुदाई में ढांचे के जो अवशेष मिले हैं उसमें पेड़ और फूल बने हैं जो मस्जिदों में नहीं होते. एक मुस्लिम पक्ष ने कहा कि हिन्दुओं के पास केवल राम चबूतरे का अधिकार है.
मोहम्मद फारुख की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नाफडे ने संविधान पक्ष के समक्ष कहा था कि हिन्दुओं के पास उस स्थान का सीमित अधिकार है. हिन्दुओं के पास चबूतरे का अधिकार तो है, लेकिन वे स्वामित्व हासिल करने की कोशिश कर रहे थे. उन्होंने कहा था कि ङ्क्षहदुओं की ओर से लगातार अतिक्रमण की कोशिश की गई. इससे पहले मुस्लिम पक्ष की वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा कि एएसआई रिपोर्ट ऑपिनियन और अनुमान पर आधारित है. पुरातत्व विज्ञान, भौतिकी और रसायन विज्ञान की तरह विज्ञान नहीं है. प्रत्येक पुरातत्व विज्ञानी अपने अनुमान और ओपिनियन के आधार पर नतीजा निकलता है.