नीता शेखर,
रिश्ते नाते क्या सचमुच जरूरी होते हैं? आज नीला की मां को यह बात 45 बरस की उम्र में बार-बार क्यों झकझोर रही थी. सोचते सोचते शाम ढॉल गई. रात का अंधेरा मन में भी छाने लगा. जिंदगी के पन्ने उम्र की दहलीज पर आकर क्यों उलटने पलटने लगे हैं?
कभी-कभी सोचती है, यह संवेदना नामक जीव मनुष्य के अंदर ही क्यों है? अगर नहीं हो तो जीवन ज्यादा सरल नहीं है इसकी प्रक्रिया क्या खोया क्या पाया अभी तक तो जो भी किया पाया ही पाया है. उनके लिए अपने मन की खुशी अपने परिवार से बढ़कर नहीं थी. पिता ने सिखाया था उन्हें जो भी करो उसमें अपनी खुशी के लिए उसे अगर तुम्हें संतुष्टि मिलती है तो तुम्हारा”यही पाया” है.
उम्र की दहलीज पर खड़ी होकर भी को क्यों भूलती जा रही है. फिर सोचने लगी पापा मैं तुम्हारे जैसा नहीं बन पाई. लोगों के व्यवहार से उनके सोचने के ढंग से दुखी हो जाती हुं. जानती हूं हर व्यक्ति का अपना अपना सोचने का ढंग होता है. उनकी परवरिश के हिसाब से आज तक किसी के सोच को प्रभावित कर सकते हैं परंतु बदल तो नहीं सकते. ऐसे भी तो लोग हैं जिनकी विचारधारा बिल्कुल बदल जाती है.
सहने की ताकत की जरूरत होती है या शायद नीला की मां में उम्र के इस मोड़ पर सहने की ताकत नहीं रह गयी है तभी तो आए दिन उसे मानसिक क्लेश का सामना करना पड़ता है. दुनिया जानती है कि जिंदगी भर तालमेल बिठाने का नाम ही जीवन है परंतु तालमेल बिठाने की प्रक्रिया अगर रोज दिन की दिनचर्या में शामिल हो जाए तो बेहद तकलीफ देह बन जाती है. फिर तो आगे बढ़ने के मार्ग अवरुद्ध होते जाते हैं. मां कोशिश करती है बच्चों की जिंदगी में अवरुद्ध ना आए और आगे ही आगे बढ़ते जाए.
नीला की मां की अपेक्षा, बच्चे बड़ों का निरादर ना करें. तौर तरीका और तहजीब का ख्याल रखें. यह नहीं भूले कि आखिरकार यह बूढ़े पीले पत्ते ही उनके जन्मदाता है और जब यह पेड़ों से झड़ते हैं तभी तो नई कोमल पतियों का जन्म कहे या आगमन होता है. फिर यही कोमल हल्की हरी पत्तियां गहरे रंग में परिवर्तित हो जाती हैं.
फल फूल लगने की और फिर गहरा हरा रंग पीलेपन में परिवर्तित होकर झड़ने की प्रक्रिया शुरू होती है. जीवन के इस सृष्टि चक्र को जो समझ लेता है उसकी सोच एक दिन में बदल जाती है. पापा तुमने तो यही सिखाया था. मैं पिछले कई बरसों से कोशिश कर रही हूं अपने परिवार को यही बात समझाने की. सिर्फ यही लग रहा है कि वे सीखने में इतना वक्त न ले ले की तब तक “दूरी” कि यह खाई पटते पटते और चौड़ी हो जाए और रिश्तों की खोज ही खत्म हो जाए.
जैसा कि सुबह की सैर के वक्त अजय की मां मिली बताते बताते रो पड़ी. संतावना देकर किसी तरह उनको चुप करा पाई. उन्होंने कहना शुरू किया. आजकल की लड़कियां शांत होकर अपने आत्मा में झांके तो उनको पता चल जाएगा उनका बड़ों के प्रति उनका व्यवहार कैसा था. तब उन्हें पता चल जाएगा कि बच्चे दादा-दादी, नाना-नानी से जिद, रोना चिल्लाना नहीं सीखते बल्कि उनकी अपनी देन होती है क्योंकि हम बुजुर्ग चुप रहते हैं. रिश्तों की अहमियत की हम कद्र करते हैं. बहुत आसान होता है तोड़ना पर बहुत मुश्किल होता है जोड़ना.