- कोडरमा डीसी और अफसरों ने कुम्हार भाईयों से एक लाख के दीये खरीदे
- सोच ऐसी कि गरीब कुम्हारों के घर भी दिवाली में रौशन हो
- ठान लिया था उसी दिन गांव में आउंगा, जिस दिन आईएएस बनूंगा
- सर से उठ चुका था पिता का साया, मां के साथ फेरी लगाकर बेचते थे चूड़ी
- सिर छिपाने को न घर की छत थी, न खेती के लिए एक धुर जमीन
- रिश्तेदार के मिले इंदिराआवास के एक कमरे में करते थे गुजर-बसर
- मां चूड़ियां बेच और खेत में काम कर बमुश्किल से कमाती थीं 100 रुपए
- जिस दिन पिता की मौत हुई, उसके तीसरे दिन था केमेस्ट्री का पेपर, रिजल्ट आया तो हो गए टॉप
- रमेश को अपने पिताजी की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए 2 रुपये भी नहीं थे
मनोज कुमार झुन्नू
कोडरमा
रांचीः एक शख्स ऐसा जिसने कभी हार नहीं मानी. हर झंझावतों को झेलते हुए आगे बढ़ते चलते गए. ठान भी लिया था कि जिस दिन आईएएस बनूंगा, उसी दिन गांव में आउंगा. सच्चाई भी यही है कि देश और दुनिया में बड़े काम छोटे-छोटे लोग ही करते हैं. ऐसे ही काम एक चूड़ी बेचने वाले इंसान ने किया है, जिसकी मेहनत को देखकर लोग उसके जज्बे को सलाम कर रहे हैं.
हम बात कर रहे हैं झारखंड कैडर के आईएएस रमेश घोलप की. घोलप एक ऐसे शख्स हैं, जिन्होंने न सिर्फ अपने सपने को साकार किया बल्कि यह साबित किया कि मेहनत और लगन से हर वो चीज हासिल की जा सकती है, जो उनकी जरूरत है.. अपने दिनों को याद करते हुए उन्होंने मिट्टी के दीये बनाने वाले कुम्हार भाईयों की सोची. उन्होंने स्वयं व जिले के अफसरों व कर्मियों के साथ मिलकर एक लाख मिट्टी के दीये भी खरीदे. मकसद यह है कि इन कुम्हार भाईयों के घर भी दिवाली में रौशन हो.
मां के साथ आवाज लगाकर बेचते थे चूड़ियां
रमेश घोलप एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिनकी कहानी सुनकर आपकी आंखों में आंसू आ जाएंगे. रमेश की मां सड़कों पर चूड़ियां बेचती थीं और वह भी उनका हाथ बंटाते थे. गली-गली मां के साथ आवाज भी लगाते थे. रमेश के पिता की एक छोटी सी साइकिल की दुकान थी. उनके पिता शराब पीते थे जिसकी वजह से उनके घर की हालत खराब थी. रमेश को अपनी पढ़ाई पूरी करनी थी, इसलिये वह अपने चाचा के गांव चले गए. वहीं उन्होंने 12 वीं कक्षा की परीक्षा दी. इसके बाद उनके पिता का देहांत हो गया. रमेश ने 12 वीं में 88.5% मार्क्स से परीक्षा उत्तीर्ण की.
सरकारी टीचर की नौकरी भी मिली
12 वीं के बाद रमेश घोलप ने डिप्लोमा इन एजुकेशन किया. फिर महाराष्ट्र में ओपेन यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया. सरकारी टीचर की परीक्षा पास की और टीचर बन गए. उनकी मां बहुत खुश थी. लेकिन रमेश का टारगेट कुछ और था. पांच से छह महीने ही टीचर की नौकरी की. उनकी मां ने गाय के नाम पर कर्ज लिया. जो पैसे मिले, उसी पैसे से 2009 में वे पुणे चले गए. 2010 ने यूपीएससी की परीक्षा दी, जिसमें वे असफल रहे.
फिर 2011 में यूपीएससी की परीक्षा दी, जिसमें वे सफल रहे. यही नहीं उन्होंने महाराष्ट्र पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा में टॉप भी किया. लेकिन उनका यूपीएससी में चयन होने के कारण उसे छोड़ दिया.
18 महीने बाद वे गांव गए
रमेश घोलप ने तय किया था कि तब तक गांव नहीं आउंगा, जब तक आईएएस न बन जाउं. इस सपने को सच करने के लिए उन्होंने जी-तोड़ मेहनत की और यह सपना 12 मई 2012 को पूरा हुआ. आईएएस बन गए और 18 महीने के बाद वे अपने गांव पहुंचे. वजह यह थी कि रमेश ने आईएएस ऑफिसर बनने से पहले कसम खाई थी कि जब तक वो आईएएस की परीक्षा को पास नहीं कर लेते वो गांव नहीं आएंगे. अपनी मां के साथ चूडियां बेचकर अपना पेट पालने वाले रमेश आज आईएएस अधिकारी बनकर आज के युवाओं के लिए एक मिसाल बन चुके हैं.
झंझावतों को खूब नजदीक से झेला
रमेश घोलप ने झंझावतों को खूब नजदीक से झेला. किस्मत ऐसी थी कि रमेश को अपने पिता की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए 2 रुपये भी नहीं थे. इस कठिन प्रसंग में भी उन्होंने हार नहीं मानी. पड़ोसियों से किसी तरह मदद लेके वे अपनी पिता की अंतिम यात्रा में शामिल हो गए. रमेश खुद बताते हैं कि वह इस बात को जानते थे कि, शिक्षा ही अपनी गरीबी को दूर कर सकती हैं.