BNN DESK: अलग राज्य के लिए संघर्ष और झारखंड गठन के बाद 20 साल की राजनीति में दिशोम गुरु शिबू सोरेन एक केंद्र बिन्दु रहे हैं. 11 जनवरी, 1944 को जन्मे शिबू सोरेन सोमवार को अपना 77वां जन्मदिन मनाएंगे. उनके संघर्षमय जीवन की शुरुआत पिता सोबरन मांझी की हत्या से होती है और इस कालखंड में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे.
शिबू सोरेन अपने बड़े भाई राजाराम सोरेन के साथ गोला स्थित आदिवासी छात्रावास में रह कर पढ़ाई कर रहे थे. शिबू के पिता की इच्छा थी कि उनके दोनों पुत्र पढ़-लिखकर अच्छे इंसान बनें. समय-समय पर पिता सोबरन सोरेन अपने घर से चावल और अन्य जरूरी सामान पहुंचाने हॉस्टल आते थे.
सोबरन के पिता और शिबू के दादा चरण मांझी तत्कालीन रामगढ़ राजा कामख्या नारायण सिंह के टैक्स तहसीलदार थे. इसलिए परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक थी. इसी बीच चरण मांझी ने अपने गांव में 1.25 एकड़ जमीन एक घटवार परिवार को दे दी.
बाद में यही जमीन सारे विवाद का कारण बनी. इसी जमीन पर मंदिर बनाने का आग्रह शिबू सोरेन के पिता की ओर से किया गया, तो गांव में ही रहने वाले कुछ महाजनों और साहूकार परिवार से उनका रिश्ता खराब हो गया. जबकि सोबरन के दो पुत्रों को स्कूल में पढ़ता देखकर गांव के ही कुछ लोग चिढ़ने लगे थे. समय गुजरता गया.
इसी बीच सोबरन सोरेन 27 नवंबर 1957 को अपने एक अन्य सहयोगी के साथ दोनों पुत्रों के लिए छात्रावास में चावल और दूसरे सामान पहुंचाने के लिए घर से निकले. उनके साथ स्कूल में पढ़ाने वाले मास्टरजी मोहित राम महतो को भी जाना था, लेकिन मास्टरजी को पहले से ही कुछ अनहोनी की भनक थी.
सुबह साढ़े तीन बजे उन्होंने ठंड का बहाना बनाते हुए पीछे से आने की बात कही. इस बीच घर से निकले सोबरन सोरेन पथरीले और जंगल झाड़ वाले रास्ते से स्कूल की ओर चल पड़े. रास्ते में तीन अन्य लोग उनके साथ हो गये, लेकिन अंधेरा होने के कारण वे उन्हें पहचान नहीं सके.
कुछ दूर चलने के बाद सोबरन सोरेन के साथ पीछे-पीछे चल रहे उनके सहयोगी ने कुछ अनहोनी की आशंका जताई, तो सोबरन ने उसे आगे चलने को कहा और खुद पीछे चलने लगे. इसी बीच लुकरैयाटांड़ (जहां अभी सोबरन सोरेन का शहीद स्थल है) में पीछे चल रहे अपराधियों ने घात लगाकर उन पर हमला कर दिया. धारदार हथियार से उनका गला काट डाला और वे उसी स्थान पर गिर पड़े. वे अपने पुत्रों के लिए घर से चूड़ा ले जा रहे थे. मरने के बाद भी वह चूड़े की पोटली उसी तरह उनके हाथ में थी.
बाद में मास्टर मोहित राम महतो स्कूल पहुंचे, जहां राजाराम और शिबू ने अपने पिता के बारे में पूछा, तो पहले उन्होंने बताया कि वे दूसरे रास्ते से आ रहे हैं, लेकिन बाद में उनके मुख से सच्चाई निकल ही गई. अपने पिता की मौत की खबर सुनकर वे दोनों दौड़ते-दौड़ते घर पहुंचे. स्थानीय थाने के दारोगा भी पहुंचे, मां सोना सोरेन से जानकारी ली, इस बीच पुलिस को एक डायरी भी हाथ लगी. इससे पुलिस को हत्या के संबंध में कुछ अहम सुराग भी मिले, लेकिन उनकी मां अब अपने पति की हत्या के बाद कोई अन्य पुलिसिया लफड़े में नहीं पड़ना चाहती थी.
ऐसे में उन्होंने किसी के विरुद्ध नामदर्ज प्राथमिकी दर्ज नहीं की. हालांकि, पुलिस ने डायरी में मिले अहम सुराग के आधार पर संदिग्धों की पहचान भी कर ली, लेकिन बाद में मामला लेन-देन कर रफादफा हो गया. और आज तक यह पता नहीं चल पाया कि आखिर शिबू सोरेन के पिता की हत्या किसने की थी और किसने हत्या करवाई थी.
पिता की हत्या ने शिबू सोरेन को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया. अब उनका मन पढ़ाई से टूट गया था. एक दिन उन्होंने अपने बड़े भाई को कहा कि वे पांच रुपया दें, वह घर जाकर कुछ करना चाहते हैं. घर में उस वक्त पैसे नहीं थे, बड़े भाई राजाराम महतो चिंता में पड़ गये. चिंता में बैठे राजाराम को घर में रखे हांडा पर नजर पड़ी.
उनकी मां एक कुशल गृहिणी थी, वह हर दिन खाना बनाने के पहले एक मुट्ठी चावल हांडा में डाल देती थी. अब राजा राम अपनी मां सोना सोरेन के वहां से हटने का इंतजार करने लगे. जैसे ही उनकी मां वहां से हटी, उन्होंने हांडा से दस पैला चावल निकाल लिया और उसे बाजार में बेच कर पांच रुपया हासिल किया. संभवतः उनकी मां अगर उस वक्त वहां मौजूद रहतीं, तो उस चावल को बेचने नहीं देती.
इसी पांच रुपये से शिबू सोरेन हजारीबाग के लिए चल पड़े. उस वक्त गोला से हजारीबाग का बस किराया डेढ़ रुपया था. उस पवित्र चावल से मिले इसी पांच रुपये ने आगे चलकर शिबू सोरेन को संथाल समाज का ‘‘दिशोम गुरु’’ बना दिया. घर से निकलने के बाद शिबू सोरेन ने लगातार संघर्ष किया.
महाजनी प्रथा, नशा उन्मूलन और समाज सुधार तथा शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए विशेष अभियान चलाया गया. बाद में अलग झारखंड राज्य आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. जिसके कारण आदिवासियों विशेषकर संथाल परगना क्षेत्र में शिबू सोरेन को लोग ‘‘दिशोम गुरु’’ मानने लगे.