विवेक सिन्हा (वरिष्ठ पत्रकार) ,
चतरा: अगर आप दिल्ली में इस जिले का नाम बताएंगें तो सुनने वाले अजीब सी शक्ल बनाएंगें लोग. कैसा नाम है चतरा! ऐसा भी नाम होता है भला. क्या मतलब होता है इसका, ना सिर ना पैर बिना अर्थ वाला. देश के नक्शे पर सबसे पिछड़े जिलों में एक चतरा की पहचान पर वक्त की धूल पड़ती गई और मिट गया इसका असली नाम.
झारखंड से वाराणसी जाने के इस पुराने रास्ते पर कभी भगवान बुद्ध ने वर्षा ऋतु का प्रवास किया था. लेकिन अंग्रेजों के आने के साथ इस जिले ने ना सिर्फ अपना असली नाम खोया बल्कि इतिहास भी खो दिया. झारखंड से इस जिले को ना तो शहर कह सकते हैं और ना ही गांव. मौजूदा दौर में तरक्की से दूर एक ऐसा जिला जिसकी पहचान गरीबी, भूखमरी, नक्सली, अफीम और कोयले की अवैध कमाई के तौर पर है, मगर चतरा का अतीत इतना बुरा नहीं था.
इस जिले को एक बेहद खूबसूरत नाम से पुकारते थे, कम आबादी वाले और घोर जंगलों के आगोश में बसे चतरा के असली नाम की खोज मैंने शुरु की तो कई रोचक जानकारियां से रुबरु होने का मौका मिला. जिसे हम चतरा कहते हैं अतीत में उसे चित्रा कहा जाता था. चित्रा के अर्थ पर भी हम आगे चर्चा करेंगे लेकिन पहले चित्रा चतरा कैसे बन गया इसकी कहानी इतिहास के पीले पन्नों को जब हम पलटते हैं तो चतरा की कहानी मानों आंखों के सामने से गुजरती है.
कभी रामगढ़ राज के अधीन इस शहर का जिक्र लिखित इतिहास में बहुत तलाश के बाद पहली बार मिलता है ईस्ट इंडिया कंपनी के दस्तावेजों में.
बात 1764 से 1784 की है. हुगली से निकल कर ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना बनारस होते हुए बॉम्बे पहुंची थी. कंपनी के सेना के अधिकारी लेफ्टीनेंट कर्नल एलन मैकफर्सन और लेफ्टीनेंट कर्नल जॉन मैकफर्सन ने इस यात्रा के दौरान सैकड़ों चिट्ठियां अपने परिजनों को इंग्लैंड भेजी जो बाद में ’सोल्जरिंग इन इंडिया 1764-1784’ के नाम से किताब की शक्ल में छपी.
इसी किताब की पृष्ठ संख्या 380 में मैकफर्सन ने जुलाई में लिखा कि “ 3 मई 1779 को सेना ने लोहरदगा से चित्रा (चतरा) के लिए कूच किया टिकाउ गांव से चित्रा के लिए 3 डिविजन रवाना हुई, सड़कें बेहद खराब थीं, पानी का घोर आभाव था पहाड़ और जंगल के लिए अलावा कुछ नजर नहीं आता था. उडा (संभावित आज का उंटा) गांव के पास सूखी हुई पुराना तालाब मिला जिसे देखने के बाद मछली मिलने की उम्मीद जगी . मेजर केमक को मैकपर्सन द्वारा लिखी चिट्ठी से पता चलता है कि मछली निकाली गई तो वो मेढ़क की तरह दिख रही थी स्थानीय लोग इसे बेंग मच्छी बोलते हैं .
“ लेफ्टीनेंट जॉन मैकपर्सन ने चित्रा का जिक्र साफ तौर से किया. जाहिर सी बात है की उस दौर में चतरा को चित्रा के नाम से ही जाना जाता था. मैकपर्सन ने आगे लिखा कि “14 मई 1779 को सेना बारियातू (आज भी इस गांव का नाम यही है जो रांची से चतरा जाते वक्त मिलती है) पहुंची और 14 मिलकर चलकर सेना चित्रा पहुंची. “
उन्होंने ‘‘ सोल्डरिंग इन इंडिया 1764-1784’ में आगे लिखा कि चित्रा से गया की यात्रा के दौरान लुसिना गांव मिला जो अपने बेहतरीन सफेद प्याज के लिए विख्यात था. उन्होंने इस किताब में चित्रा से दिनापुर की दूरी 131 मिल और 5 फर्लांग बताया . इसी किताब में जेम्स रेनेल्स द्वारा तैयार किया गया एक नक्शा भी जो 1782 का है उसमें शेरघाटी, गया के सथा चित्रा (चतरा) का भी स्पष्ट उल्लेख है .
ये तो हुई ईस्ट इंडिया कंपनी के दस्तावेजों में आज के चतरा के असली नाम के लिखित सबूत की बात . इसी दौर में एक और किताब प्रकाशित हुई ’नेचर एंड इफेक्टस ऑफ इम्टीज पुग्रेटीप मेरिकुरियल्स एंड लॉ डायट इन डिसऑडर ऑफ बंगाल एंड सिमिलर लैटिट्यूट’’ जिसके लेखक थे जॉन पीटर वेड और प्रकाशित हुई थी साल 1791 में.
जॉन पीटर वेड ईस्ट इंडिया कंपनी में बतौर डॉक्टर भारत आए थे और उन्होंने कंपनी के अधिकारियों को भारत में होने वाली बीमारियों और उसके निदान के बार में बहुत विस्तार से लिखा. चतरा या चित्रा का जिक्र उन्होंने करते हुई लिखा कि किस तरह चित्रपुर ( चितरपुर) से चित्रा (चतरा) की यात्रा के दौरान कंपनी के अधिकारी की तबीयत बेहद खराब हो गई, ऐसी बीमारी हुई जो यूरोप में नहीं मिलती. उन्होंने इस किताब में चतरा को उसके वास्तविक और पुरातन नाम चित्रा के तौर पर ही लिखा. मिलिट्री मेडिकल के इतिहास में झारखंड के इस जिले की कहानी ये बताती है कि किस तरह दो सौ सालों में अच्छे भले नाम को बिगाड़ दिया .
एक और किताब की मिसाल देना मुनासिब रहेगा क्योंकि जब कभी भी इस शहर को इसके वास्तविक नाम से जाना जाएगा तब इतिहास के यही पन्ने काम देंगे. ‘‘कोड ऑफ रेगुलेशन फॉर मेडिकल डिपार्टमेंट ऑफ बंगाल इस्टेबिलस्मेंट’’ 1838 में कोलकाता से प्रकाशित जेम्स हचिंसन की इस पुस्तक में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा दवाइयों और मेडिकल इक्विपमेंट की आपूर्ति के संबंध में रिकॉर्ड दर्ज है.
इस किताब में एच सी डिस्पेंसरी द्वारा जिन शहरों में दवाइयां और मेडिकल इक्विपमेंट्स भेजे जाते थे. उसमें चित्र का भी स्पष्ट तौर से उल्लेख है. इसी किताब में हजारीबाग, डोरंडा, शेरघाटी, चित्रा और गया की स्पेलिंग स्पष्ट रूप से लिखी गयी है. अब यह बात समझने की है कि उस दौर में ईस्ट इंडिया कंपनी और इस के अधिकारियों के लिए भारत के गांव शहरों के नाम लिखना और समझना उसके ऐतिहासिक महत्व के बारे में जानना आसान नहीं था इसीलिए आज के दौर में जिन शहरों के नाम इंग्लिश में हम जिस तरह लिखते हैं.
इतिहास के पन्नों में यह नाम कुछ और ही मिलते हैं. इन्हीं पन्नों में चित्र का होना यह बताता है कि किस तरह हमने एक बेहद सुंदर नाम को सिर्फ 100 सालों में बदलकर चतरा कर दिया. इतना ही नहीं भारत में जब पोस्टल डिपार्टमेंट की शुरुआत हुई तो भी जो चिट्ठी आती जाती थी उसमें चतरा को चित्रा ही लिखा जाता था एक किताब है- ‘‘द हैंडस्ट्रक पोस्टेज स्टांप्स ऑफ इंडिया’’, 1949 में प्रकाशित इस पुस्तक के लेखक हैं डी हेमंड गिल्स, उन्होंने इसमें लिखा है कि चतरा शेरघाटी गया से फोर्ट विलियम कोलकाता भेजें जाने वाले पत्रों के लिए पांच आने का स्टांप लगता था.
जाहिर सी बात है कि सरकारी दस्तावेजों में भी चतरा को कई सालों तक अंग्रेजों ने कई जगहों पर चित्रा लिखा लेकिन वक्त के साथ अधिकारी बदलते रहे और चित्र का उच्चारण अंग्रेजी अधिकारियों की चिट्ठियों दस्तावेजों में चतरा होता चला गया यहां तक कि आने वाले वर्षों में जो सरकारी गजट प्रकाशित किए गए उसमें चित्रा को चतरा कर दिया गया.
1857 की क्रांति के दौरान बैटल ऑफ चतरा भी एक महत्वपूर्ण अध्याय है चतरा की लड़ाई के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से मेजर इंग्लिश में क्रांतिकारियों से जंग लड़ी थी , उन्होंने अपनी चिट्ठी में इस जगह का नाम चित्रा तो लिखा है लेकिन स्पेलिंग कुछ अलग है. उन्होंने अपनी चिट्ठी में चित्रा को चुत्रा लिखा और आई की जगह यू का इस्तेमाल कर लिया, इसी तरह आने वाले दिनों में सरकारी दस्तावेजों में यू की जगह ए इस्तेमाल होने लगा और चित्रा धीरे-धीरे चतरा हो गया.
अब सवाल यह उठता है कि चित्रा का अर्थ क्या है, ऐतिहासिक दस्तावेजों और शब्दों के अर्थ को और गहरे तक अगर हम तलाश करें तो यहां पर दो अर्थ निकलते हैं पहला अर्थ चित्र यानी सुंदर वन माना जा सकता है जिसके लिए कभी चतरा प्रख्यात था यहां के जंगल झारखंड के सबसे खूबसूरत जंगलों में एक माने जाते रहे हैं, दूसरा चित्रा को हिरण की एक प्रजाति चीतल के तौर पर भी माना जा सकता है आज भी सफेद धब्बे वाले हिरण इस इलाके में यदा-कदा दिख जाते हैं. वन्य जीव के इतिहास में चित्रा या चीतल हिरण की प्रजाति है.
माना यह जाता है कि इस इलाके में उस जमाने में हिरणों की संख्या बहुत ज्यादा रही होगी जिसकी वजह से इसका नाम चित्रा पड़ गया. हालांकि अंग्रेजों के आने के बाद भारत के कई शहरों और गांव के नाम उनके मूल नामों से बिल्कुल अलग हो गए इससे चित्रा भी नहीं बच सका.
देशभर में कई शहरों के नाम आजादी के बाद बदले गए हैं. ऐतिहासिक तौर पर चित्र या चतरा का नाम भले ही देश के दूसरे हिस्सों के लिए महत्वपूर्ण नहीं रहा हो लेकिन यहां रहने वाली लाखों की आबादी जरूर यह चाहेगी कि उनका बिगड़ा हुआ नाम फिर से चित्रा के तौर पर जाना जाए.