जहाँ आकर लगता है कि जितनी मेहनत अपने लक्ष्य के प्रति की थी वो लक्ष्य तक पहुचाने में नाकामयाब रही.
तब बस अंतर्मन से भी यही आवाज़ आती है कि सुना था मेहनत का फल देर से मिल सकता है लेकिन इतना देर से क्यों और आखिर देरी होगी तो उसकी कोई समय सीमा क्यों नही.
अगर ये पिछले जन्म के कर्म हैं तो ये व्यवस्था किसने औऱ क्यों बनाई? क्यों न हम जब कार्य/कर्म करें तभी हमको हमारा हक मिले.
एकाएक उस दिन ये सोचते सोचते रात्रि बहुत ज्यादा हो गयी थी, आंखे भी रोते रोते थक जाती है.
रात के सन्नाट में सभी सो चुके थे शायद इसलिए वो आवाज़ किस्मत तक बिना अवरोध के पहुँच रही थी,किस्मत से भी रहा न गया और स्वर्ग से शायद उसी सन्नाट की तरह दौड़ी आयी और ठीक मेरे सिर के समीप बैठ गयी जहां में खाट पर लेटा हुआ था.
तभी उसके और मेरे बीच हुए वाद विवाद के कुछ अंश जिनको मैंने कविता का रूप दिया है.
टॉक विद किस्मत
न तू कम थी न मैं कम था, यौवन का भी अपना चरम था, हराया था तूने पग पग मुझे , करूं क्या मैं रक्त जो मेरा गरम था।
न तूने जीतने दिया न मैंने हार मानी, उम्र भर चलती रही है, बस यही कहानी।
अब तो बस कर, मेरी मेहनत का फल मुझे दे, कहीं इंतजार में बीत न जाये, ये ढलती जवानी।
हाँ किस्मत तेरा नाम है मुझे भलीभांति पता है, तूने मुझे मेरा न दिया है, हुई क्या ये मुझसे खता है?
अंगारों में तपाया था बदन तूने , समझा था धूप का राजा बनूँगा, मौसम सदियों से सर्द चल रहा है, अब उस बदन की नुमाईश कैसे करूँगा?
पता है तू समेट लेगी मुझे किसी दिन पर ये साधना तो अमर होगी, आने वाले दिनों में देखना, हिम्मत की चर्चा शहर शहर होगी।
तुझको ये सुनाने भर से , मेरा कर्म न पूरा होगा, जो देखा है पुनर्जागरण का सपना , सच है कि बिना मेहनत के अधूरा ही होगा।
बैठेंगे न यूँ थककर, पत्थर को हम आवाज़ से तोडेंगे, पर पता नही आज भी दिल कहता है, हर लक्ष्य की बांह मरोड़ेंगे और कमर को तोडेंगे, बांह मरोड़ेंगे औऱ कमर को तोडेंगे।
कर्ण जैसा वक्षस्थल विशाल क्या तू इसको तोड़ेगी, शिखण्डी की ये कमर नही है जो तू इसको मरोडेगी, ठहर जरा सुन के जा, ये प्रतिज्ञा मेरी भीष्म के जैसी, अब तुझसे कोई प्रीत नही होगी, कृष्ण के जैसा योग है मेरा, देख तू जरा देख जीत अंत मे मेरी ही होगी।