राहुल मेहता
झारखंड में भारतीय जनता पार्टी की हार कई मामले में अप्रत्याशित रही. दोनों पक्षों को इस परिणाम की अपेक्षा नहीं थी. चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ होने तक राजनीतिक विशेषज्ञ एवं जनता भी मान रही थी कि भाजपा की सरकार दुबारा आने वाली है. परंतु क्या वास्तव में ऐसा था?
संकेतों की अनदेखी
आवरण के अंदर संकेत लगातार मिल रहे थे जिसके अनदेखी की गई .जिसकी परिणिति इस परिणाम में हुई. 31 जनवरी 2018 को राज्य के 8 विधायकों ने मुख्यमंत्री के कार्य प्रणाली से असंतुष्टि जाहिर करते हुए एक बैठक की थी. आलाकमान को भी एक गुप्त प्रतिवेदन भेजा गया था.
असंतुष्टि जाहिर करने वाले विधायक
खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री सरयू राय, गंगोत्री कुजूर (मांडर), ताला मरांडी (बोरियो), साधु चरण महतो (ईचागढ़), लक्ष्मण टुडू (घाटशिला), शिव शंकर उरांव (गुमला), जय प्रकाश वर्मा (गांडेय), योगेश्वर महतो बाटुल (बेरमो) और मेनका सरदार (पोटका)।
सुझाव पर विमर्श की जगह प्रतिशोध
लेकिन इसका नतीजा क्या हुआ ? 8 में से 5 विधायकों का टिकट काट दिया गया. हद तो तब हो गई जब मांडर विधानसभा में पहली बार भाजपा का परचम लहराने वाली, क्षेत्र में अति सक्रिय और लोकप्रिय विधायक गंगोत्री कुजूर का भी टिकट काट दिया गया. जिन तीन विधायकों का टिकट नहीं कटा उनके प्रचार में पूर्ण दमखम नहीं लगाया गया जिसकी परिणति उनके हार से हुई.
चाणक्य ने स्पष्ट कहा था कि जब कभी संस्थागत हित पर व्यक्तिगत हित हावी होती है तो संस्था का पराभव निश्चित है और यदि व्यक्तिगत हित में सामाजिक हित भी सन्निहित हो तो विकास के द्वार अपने आप खुल जाते हैं. देश में कांग्रेस हो या रघुवर सरकार, जिन्होंने संस्थागत हित पर व्यक्तिगत हित को प्राथमिकता दी उसका नतीजा वे खुद भुगत रहे हैं.
संगठन के कार्यकर्ताओं पर बाहरी प्रत्याशियों को तरजीह
पार्टी में अपनी पकड़ एवं कद मजबूत करने के लिए संगठन के निष्ठावान कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर बाहरी प्रत्याशियों को तरजीह दिया गया. उनकी निष्ठा पार्टी के प्रति ना होकर रघुवर दास के प्रति थी. रघुवर दास को उम्मीद थी कि जीतने के बाद वे उनके प्रति वफादार रहेंगे. परंतु वे भूल गए कि व्यक्ति कभी भी संस्था से बड़ा नहीं होता.