खास बातें:-
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सीएम रघुवर दास के सामने 65 प्लस सीट दिलाने की है चुनौती
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सुदेश महतो के लिए संगठन विस्तार के साथ प्रदर्शन करना भी है जरूरी
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शिबू सोरेन के उत्तराधिकारी के रूप में हेमंत सोरेन को करना होगा साबित
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बाबूलाल मरांडी को फिर से पार्टी को जीत दिलाने की है जिम्मेवारी
रांचीः झारखंड में सियासी फिजां पूरी तरह से बदल चुकी है. विधानसभा चुनाव में सीएम रघुवर दास समेत दो पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, हेमंत सोरेन व पूर्व डिप्टी सीएम सुदेश महतो की प्रतिष्ठा दांव में लगी हुई है. साथ ही यह चुनाव इनके राजनीतिक भविष्य को भी तय करेगा.
सीएम रघुवर दास के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उन्हें अपनी सीट के साथ पार्टी के उम्मीदवारों को भी जीत दिलाने की भी चुनौती है. सीएम रघुवर दास के सामने इस बार अपने ही दल के बागी सरयू राय हैं, जो उन्हें कड़ी टक्कर दे सकते हैं.
पिछले चुनाव में बीजेपी को 37 सीटें मिली थी. इस पर बीजेपी के समक्ष 65 प्लस का लक्ष्य है. इसकी जिम्मेवारी रघुवर दास को दी गई है.
हेमंत सोरेन को भी करना होगा साबित
पिछले चुनाव में झामुमो ने अकेले दम पर चुनाव लड़ कर 19 सीटें हासिल किया था. इसके बाद चुनाव से पहले झामुमो, कांग्रेस व राजद के बीच गठबंधन हुआ है. गठबंधन में हेमंत सोरेन को नेता स्वीकार किया जा चुका है. इस चुनाव में हेमंत सोरेन को साबित करना होगा.
हालांकि हेमंत सोरेन ने पार्टी का जनाधार शहरों में फैलाने का काम किया है. साथ ही झामुमो ने सोशल मीडिया में भी अपनी जबरदस्त उपस्थिति दर्ज कराई है. हेमंत सोरेन को झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन के उत्तराधिकारी के रूप में देखा जा रहा है.
बाबूलाल के लिए पार्टी की साख बचाना है चुनौती
बाबूलाल के लिए अपनी सीट के साथ पार्टी की साख बचाना बड़ी चुनौती है. इस बार झाविमो ने सभी 81 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारा है. पिछले चुनाव में झाविमो को आठ सीटें मिली थी. हालांकि बाबूलाल काफी जुझारू नेता हैं. अगर झाविमो को 8 से 10 सीटें मिलते हैं और त्रिशंकु होने की स्थिति में बाबूलाल किंगमेकर की भी भूमिका में आ सकते हैं.
सुदेश महतो के सामने बेहतर प्रदर्शन की चुनौती
आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो के सामने बेहतर प्रदर्शन की चुनौती है. वर्तमान में भाजपा और आजसू की राहें अलग-अलग हो गई हैं. कई सीटों पर बीजेपी और आजसू के बीच कड़ी टक्कर की संभावना भी दिख रही है.
आजसू अब तक 30 से अधिक सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है. वर्तमान में दूसरे दलों के वैसे बागी नेता जिन्हें टिकट नहीं मिला, उनकी पहली पसंद आजसू बनी हुई है. हालांकि पार्टी का कुनबा लगातार बढ़ रहा है, लेकिन नतीजों को अपने पक्ष में करना आजसू के लिए बड़ी चुनौती है.