रांची: संस्कृति व परंपराओं पर आधुनिक जमाने की चकाचौंध भारी पड़ रही है. भारतीय संस्कृति से जुड़े पारंपरिक त्योहारों पर यहां के कारीगरों द्वारा निर्मित सामान को तरजीह दी जाती है, लेकिन अब दीपावली पर मिट्टी के दीये की जगह बिजली के बल्ब लड़िया चमकते हैं. दीये को दीपावली के प्रतीक के रूप में मान जाता है, इसके बिना त्योहार नहीं मनाया जा सकता, लेकिन आज इलेक्ट्रोनिक सामान को दीये की शक्ल दे दिए जाने से मिट्टी के दीयों की मांग कम हुई है.
इससे कुम्हार का पारंपरिक व्यवसाय तो प्रभावित हुआ ही है और साथ ही उसकी दीपावली भी फीकी है. क्योंकि दीपावली पर मिट्टी के दिये बेचकर कुम्हार के घर की दीपावली अच्छी होती है, जिसका इंतजार भी उसे साल भर रहता है. लेकिन दिन प्रतिदिन बढ़ती आधुनिकता के जमाने की चकाचौंध अब कुम्हार पर और उसके व्यवसाय पर भारी पड़ रही है और साथ ही साथ एक इशारा है एक और पारंपरिक प्रथा के खत्म होने की.
आपको बता दे कि आज भी मिट्टी से बने दिए और हाथी ,शेर ,ग्वालिन बाजार में मिलते है लेकिन दुसरो का घर दियों से रौशन करने वालो कुम्हारों का मेहनत का फल नही मिल पाता है.
माटी के दिए बनाने वाले कुम्हारो का कहना है कि अब आसपास चिकनी मिट्टी भी नहीं मिलती है जिसे उनलोगों को दूर दराज जाना पड़ता है जिसे परेशानी होती है. कुम्हार मिट्टी के दिये जून से ही बनाने में लग जाते है ,कई दिनों की मेहनत कर दिए बनाते है जहाँ उसे आस पास के बाजारों में बेचते है.
कोरोना काल ने हर व्यवसाय पर बहुत बड़ा असर डाला है. दीपावली से सभी को अच्छे व्यापार की उम्मीद बंधी है. कुम्हार भी उत्साहित होकर अच्छे व्यापार के लिए दीये बनाने में जुटे हैं. वहीं, नगरवासियों ने भी इस बार दीपावली पर मिट्टी के दीये ही जलाने का संकल्प लिया है, लोगों का कहना है कि वह चीनी झालरों और दीयों का बहिष्कार करेंगे.
कुम्हार का ठहरा हुआ चाक समाज के हर व्यक्ति से दीपावली पर मिट्टी के दीप के व्यापक प्रयोग करने की गुजारिश कर रहा है ताकि इस संस्कृति व परंपराओं को बचाया जा सके.