चेतनाओं भरे हृदय में,कुंठा और निराशा है, अवचेतन मन को लेकर,मुरझाई सी आशा है।
सब्र अश्रु बनकर झरनों सा,
क्षर-क्षर गिरता मानव सागर पर,
प्रेम भी कुहासे में लिपटा,
ठहर रहा अधरों के गागर पर,
चिंताओं के घनें वनों में “आज”,
उलझनों से उलझती भाषा है।
चेतनाओं भरे हृदय में,कुंठा और निराशा है, अवचेतन मन को लेकर,मुरझाई सी आशा है।
विरह विकट बनकर छाया है,
मानव के निज चित्त पटल पर,
मौन भी छाया रहता हर पल,
देखो यहां हृदय – भूतल पर,
अन्तर्मन के झंक्षावतों में फँसी,
“आज खुशियों को”
बस खुश रहने की अभिलाषा है,
चेतनाओं भरे हृदय में,कुंठा और निराशा है, अवचेतन मन को लेकर,मुरझाई सी आशा है।
पोषित बन शोषित रहे बिलख,
चहुँ ओर कलेष की माया है,
मानव- मानव को लूट रहा,
संकट में हर मानव काया है,
रक्त सुशोभित, रक्त सिंचित
अब जन-जन रक्त को बहा रहा,
रक्त – करों में, लिपटी आज ये देखो,
मानवता की कैसी परिभाषा है———–
मानवता की कैसी परिभाषा है———–
चेतनाओं भरे हृदय में, कुंठा और निराशा है, अवचेतन मन को लेकर, मुरझाई सी आशा है