राहुल मेहता,
रांची: चुनाव का बिगुल बज चुका है. अपने-अपने दावे किये जाने लगे हैं. दावों के बीच कार्यालय में यौनिक शोषण का शिकार सुमीता (बदला हुआ नाम) न्याय के लिए दर-दर भटक रही है.
राज्य में विकास के दावे, स्वप्न तथा जिंदगी के जद्दोजहद के बीच दिल्ली के घरों में सिसकती मासूम बेटियों के आंसू, रिश्तों के बीच शोषण का शिकार होती बहनों की सिसकियां, डायन के नाम पर उत्पीड़ित माताओं की चित्कार पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के भीतर दब कर रह जाती हैं. ऐसा नहीं कि विगत सालों में विकास नहीं हुआ पर मंजिल अभी दूर है-
- घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत स्वतंत्र संरक्षण पदाधिकारी, सेवादाता संस्थाओं की नियुक्ति नहीं हुयी है.
- कार्यस्थल पर लैंगिक हिंसा की शिकायत के लिए अधिकतर संस्थाओं में समितियां नहीं बनी हैं.
- डायन के नाम पर हत्या आज भी राज्य में सर्वाधिक है (एन.सी.आर.बी)
- हजारों की संख्या में झारखण्डी महिलाएं मानव-व्यापार के द्वारा महानगरों में खपा दी जाती हैं.
- बलात्कार का राष्ट्रीय औसत 2.78 है, जबकि झारखण्ड में यह 3.65 है.
डिजीटल भारत में राज्य महिला आयोग का वेबसाइट आज भी ’विशाखा गाइडलाइन’ की बात करता है, जबकि 2013 में ही ’कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक हिंसा से रोकथाम, निषेध व निवारण अधिनियम’ पारित हो गयी है एवं गाइडलाइन का कोई अस्तित्व 2013 से नहीं है.
महिलाओं के विरूद्ध यौनिक शोषण के अभियान मी टू की हवा भी निकल चुकी है. ऐसा क्यों? राज्य महिला आयोग का वेबसाइट इसका पोल खोलती है. राज्य में महिलाओं के न्याय के लिए जिम्मेदार राज्य महिला आयोग क्या इसके लिए जिम्मेदार नहीं?